Monday, 22 September 2008

सपने का डर

आज जब सोकर उठा तो डरावने सपने का खौफ चेहरे पर लिये सुनहरी सुबह से सामना हुआ- घड़ी देखी तो 9 बज चुके थे- अखबार देखा तो फ्रंट पेज पर खबर थी एक और रईसजादे की बीएमडब्लू के नीचे 7 की मौत- दिल्ली की ब्लू लाइन का कहर अब भी जारी - सफदरजंग के पास ब्लू लाइन ने भी बनाया तीन को अपना निशाना - पहले नींद में चीते वाला डरावना सपना फिर अखबार की बुरी-बुरी खबरें समझते देर नहीं लगी कि कोई सपना सच हो न हो आज ये चीते का सपना तो जरूर सच होने वाला है- क्योकि सुबह के सपने हमेशा सच होते है- बिस्तर से उठकर शीशे के सामने पहुंचा तो सपने का खूनी मंजर किसी फिल्म की तरह आँखों के सामने से निकल गया- सपने में कल रात मैने देखा था कि कुछ चीते मेरा पीछा कर रहे है उनके नुकीले दाँतो और बड़े बड़े पंजो के सामने मैं खुद को असहाय सा महसूस करता हुआ गिरता पड़ता दौड़ता चला जा रहा हूँ और मेरे लाख चिल्लाने के बावजूद मुझे बचाने के लिए कोई भी आगे नहीं आ रहा है- सोचा मेरा जंगल से क्या वास्ता- ये सपना तो मेरे साथ सच हो ही नहीं सकता- चीते शहर मे आ नहीं सकते और मेरा जंगल तक जाने का कोई इरादा नहीं- कुछ इसी सपने से जुड़े सवाल जवाब करता मैं दफ्तर के लिए तैयार होता जा रहा था। घर से निकला तो करीब साढे दस बजने को आये थे- सड़क पर मैं किसी रिक्शे के इंतजार में बढ़ता जा रहा था । दफ्तर जाने की जल्दी होने के बावजूद सपने मे मेरा पीछा करते चीते मुझे अभी भी डरा रहे थे।

सड़क पर चलते चलते आते जाते ट्रकों और बसों को मैं देखता जा रहा था और अब सड़क पर ये चलतें भारी भरकम टायर वाले चीते मतलब बस और ट्रक भी मुझे डराने लगे थे- मैं रोड क्रास करने की कोशिश कर रहा था लेकिन नहीं कर पा रहा था लग रहा था जैसे अभी भी वो चीते मेरे पीछे पड़े है। उनके टायर मुझे उन नुकीले दाँतो का एहसास करा रहे थे जो अभी कुछ ही घंटो पहले मैने अपने बिस्तर पर पड़े पड़े देखे थे- सड़क पर हार्न की आवाजे मुझे उन चीतो की चिंघाड़ जैसी लग रही थी जिनसे बचने के लिए मैं थोड़ी ही देर पहले अपने सपने में भागा जा रहा था- सडको पर भागती छोटी गाड़िया मुझे उन खरगोशो की तरह लग रही थी जो जंगल में उसी वक्त अपनी जान बचाकर भागते है जब कोई शेर या चीता अपने शिकार के पीछे भागता है- अचानक उसी सड़क का नजारा मुझे बेहद डरावना सा लगने लगा था जिस सड़क से मेरा रोजाना आना जाना था- मेरी समझ मे नहीं आ रहा था कि मैं करूं तो क्या करूं... हाँ मुझे डर लग रहा था कि मैं एक जंगल के बीच फंस गया हूँ... क्या ये किसी जंगल से कम है। शायद हमारी सोच का ही फर्क है जो हम खुद को इन खूनी सड़को के बीच खुद को महफूज समझते है।

अगर हम वाकई सड़को पर सुरक्षित होते तो आज किसी को दिल्ली की ब्लू लाइन और रईसजादों की बीएमडब्लू से डर नहीं लगता-जंगल में तो तब भी पेट की भूख मिटाने के लिए खूनी खेल खेला जाता है लेकिन यंहा शहरों की सड़को पर तो पढा लिखा सभ्य समाज बेमतलब ऐसा घिनौना खेल खेलता है- कौन समझाये उन पढें लिखे ज़ाहिलो को कि हाथ में स्टियरिंग व्हील का मतलब जिम्मेदारी होती है वो भी सिर्प अपनी नहीं बल्कि उन सबकी जो आपके आसपास इस यकीन के साथ चल रहे है कि आप भी उन्ही की तरह इंसान है। अगर उन्हे ये पता चल गया कि आप आदमी की शक्ल मे जानवर है तो उनका ये यकीन जाता रहेगा और फिर सबको ये भी समझना जरूरी है कि सड़क पर गाड़ी लेकर निकलना कोई खेल नहीं है कि जब चाहा किसी की खुशी या किसी के सुहाग का सौदा कर लिया- और फिर अदालत में जुर्माना फेंक कर चलते बने ... यंहा सवाल सिर्फ आपका नहीं बल्कि दूसरो की जिंदगी का है जिसके लिए आपको कोई भी सौदा करने का कोई हक नहीं जिंदगी दे नहीं सकते तो लेने का हक किसने दिया आपको।

लेकिन इस सोच का क्या जिसे मुठ्ठीभर गैरजिम्मेदार लोगो ने कुछ इस तरह बदल दिया है कि विश्वास ही नहीं होता कि सामने से आ रही गाड़ी को भी कोई मेरे जैसा इंसान ही ड्राइव कर रहा है। शायद हमारी सोच ने ही शहरो को भी जंगल जैसा खतरनाक बना दिया है.. और मेरे सपने भी अब मुझे इसीलिए डराने लगे है- सच है कि अब भी सड़क पर कुछ चीते मेरा पीछा कर रहे है।

3 comments:

आत्महंता आस्था said...

तेजी से भागते युग में मानवीय संवेदनहीनता को अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया है आपने. इसी विचार से जुड़ी मेरी कविता पढने के लिए आयें- http://atmhanta.blogspot.com

pallavi trivedi said...

सही कहा..आजकल बेलगाम होते वाहन किसी चीते से कम नहीं हैं!

Udan Tashtari said...

अच्छा लगा आपका लेखन और विचार!!सही कहा!