Monday 29 September 2008

भूलने की भूल

जो लोग दो अक्टूबर को गाँधी जयंती मनाने वाले है उनमे से शायद किसी के लिए भी आज यानि २९ सिंतबर का दिन कोई खास मायने नहीं रखता- और रखे भी क्यों आज किसी महात्मा गाँधी का जन्मदिन तो है नहीं जो लोगो को सरकारी छुट्टी मिले- ये दिन उनके लिए किसी भी दूसरे आम दिन की तरह ही होगा- लेकिन दुख की बात तो ये है कि आज के दिन भी देश की आजादी के लिए हंसते हंसते फांसी पर चढ़ने वाले उस शहीद का जन्मदिन है जिसे हम सब शहीद भगत सिंह के नाम से जानते है- अब इसे देश की बदकिस्मती कहें या भगत सिंह की, कि लोगो को उनके जन्मदिन को याद रखने की कभी कोई जरूरत ही महसूस नहीं हुई- इस बारे में इतना लिखना ही काफी है- आगे इस बारे में कुछ लिखनें का साहस मुझमें नहीं है क्योकि आजाद भारत के जो लोग भगत सिंह को भूलनें की भूल कर सकते हैं वो कुछ भी कर सकते है और उनसे कुछ भी कहना व्यर्थ है।

अच्छे होने का हक

अरे नहीं, ये तो इंडिया हो ही नहीं सकता... कुछ यही शब्द मेरे मुंह से उस वक्त निकले जब मैं डिस्कवरी पर इंडिया के ईस्टर्न स्टेट्स पर बनी एक डॉक्यूमैंट्री देख रहा था- अब इसे यशराज की फिल्मो का असर कहे या हमारी गुलाम मानसिकता- कोई भी अच्छी सीनरी हमें भारतीय नहीं लगती।
सालो साल से ये बात हमारे भीतर घर कर चुकी है कि जो भी अच्छा है वो इंडिया का नहीं हो सकता और ये बात कोई पूरी तरह गलत भी नहीं है लेकिन हद इस बात की है कि अगर सौ में नब्बे चीजे खराब हैं भी तो बाकी बची दस चीजो के अच्छे होने का हक हम खुद ही उनसे छीन लेते है।
कुछ ऐसा ही इस देश के मुसलमानो के साथ होने लगा है- देश के करोड़ो मुसलमानो में से एक अब्दुल हमीद को तो हमने भुला दिया है जो पाकिस्तान के खिलाफ जंग में देश पर शहीद होकर अपना नाम रोशन कर गये अब हमे याद है वो सारे टैरेरिस्ट जो कभी मजहब के नाम पर तो कभी काश्मीर के नाम पर आतंक फैलाते रहते है- और इस चक्की में पिसते हैं वो जो बेचारे वाकई शरीफ मुसलमान हैं और एक जिम्मेदार नागरिक भी।
मुसलमानो के लिए हमारे बदलते रवैये ने बाकी बचे शरीफ मुसलमानो के आत्मविश्वास को भी बुरी तरह चोट पहंचाई है- किसी को बार बार चोर कहकर शायद हम ही उसे कहीं न कहीं चोरी करने को उकसाते हैं।
यही बात मुझे २९ सिंतबर के हिंदुस्तान टाइम्स की हैडलाइन ब्लैकलिस्टेड देखने के बाद महसूस हुई- जिसमें कहा गया है कि जब से दक्षिण दिल्ली के महरौली इलाके मे टिफिन बम ब्लास्ट हुआ है उस इलाके के आसपास जाकिर नगर, गफ्फार मार्केट और अबु फजल एन्कलेव में रहने वाले मुसलमानो से नये इंटरनैट कनेक्शन लेने, पिज़ा की होम डिलीवरी लेने जैसे कई हक मानो जबरन ही छीन लिये गये है- माना कि देश में होने वाले ज्यादातर टैरेरिस्ट अटैक मुस्लिम धर्म के नाम पर किये जाते है लेकिन सिर्फ ये बात बार बार कहकर आप सारे मुसलमानो को गाली तो नहीं दे सकते- ये तो 'करे कोई भरे कोई' वाली बात हुई- हाँ गुस्सा करना जायज है लेकिन कोई किसी को इस तरह से धर्म के नाम पर बेइज्जत करे ये तो किसी धर्म में नहीं सिखाया गया।
ये इस देश में मुस्लिम होने का ही खौफ है कि मेरे कई मुस्लिम दोस्त ऐसे हैं जिनके घरवालो ने उनके पहले नाम ऐसे रखे हैं जिससे उनके हिंदु होने का एहसास हो- ये ठीक वैसा है जैसा कि कभी काश्मीर मे हुआ था वंहा मैं किसी शख्स को जानता हूं जो अपना नाम लिखते है पंडित अब्दुल समद- ये मिक्सचर वाला नाम उनके घरवालों के डर की उपज था - अब नाम तो नाम है पड़ गया सो पड़ गया और ऐसा पड़ा कि अपने पीछे इतिहास की कहानी बयां कर गया-
सवाल ये है कि हमें ये हक किसने दिया कि हम किसी से उसके अच्छे होने का हक छीन ले- किसी का भाई अगर चोर है तो हम उस बिनाह पर उसे भी चोर तो नहीं ठहरा सकते- बजाय इसके कि हम चोर के बेगुनाह भाई को चोर चोर कहकर गुनाह के दलदल में धकेल दे क्या उससे कही अच्छा ये न होगा कि हम उसे ये एहसास दिलाये कि उसका भाई चोर है तो क्या पर हमें उस पर पूरा भरोसा है- यकीन मानिये कहीं न कहीं आपका ये भरोसा पाकर वो अपने चोर भाई को भी गुनाह की दलदल से इस बात का यकीन देकर बाहर निकाल सकता है कि समाज उसे भी अच्छा होने का हक दे रहा है- वरना हमारी मानसिकता तो कहीं न कहीं उसके अच्छे होने का हक ही उससे छीन लेती है। बहुत से रास्ता भटके लोग तो सिर्फ इसी बात को सोचकर वापस नहीं आना चाहते कि लोग उन्हे पता नहीं स्वीकार करेगे भी कि नहीं- वैसे इस मामले में मोनिका बेदी एक अच्छी मिसाल साबित हुई है जिन्होने इस दुनिया से दोबारा नज़र मिलाने की हिम्मत की जो कि अपने आप में काबिले तारीफ है।
मीठे वचनो से संसार जीता जा सकता है, मुश्किल तो ये है कि कभी किसी ने इस बारे में सोचा ही नहीं।

Monday 22 September 2008

गुबार

पिछले हफ्ते नसीरुद्दीन शाह की फिल्म ए वैडनैसडे देखी- बेहद पसंद आई- पसंद आने की वजह नसीर और अनुपम खेर की एक्टिंग से ज्यादा ये थी कि इस फिल्म ने मेरे जैसे एक आम इंसान के अंदर दबे गुबार को निकालने का मौका दिया।
ये फिल्म हर उस उस इंसान के लिए एक स्ट्रेस बस्टर साबित हुई जो आज अपने स्कूल जाते बच्चे को देखकर ये चिंता करने लगता है कि कहीं कोई उसकी स्कूल बस या क्लास के अंदर बम न रख दे- शायद आप खुद भी ऐसा कई बार सोचते होगे कि आप अगर एक दिन घर से बाहर निकले और वापस नहीं आये तो आपके घरवालो का क्या होगा- भले ही कहते न हो पर दिल मे ख्याल आया जरूर होगा- यंहा आप मेरा ब्लॉग पढ़ रहे है और उधर जो कोई आपका रिश्तेदार या दोस्त कोई फ्लाइट या ट्रेन ले रहा है उसके साथ कोई हादसा हो गया तो- ये वो ख्याल है जो जाने अनजाने हम आप जैसे आम इंसानो को आता जरूर है- फिर हम शुभ शुभ बोलो शुभ शुभ सोचो कहकर ऐसे ख्याल से खुद को दूर कर लेते है लेकिन सिर्फ ऐसा कह देने भर से आप की मुश्किल खत्म नहीं हो जाती क्योकि ये तो सच है कि आज इस धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश में आम आदमी न तो घर के बाहर सुरक्षित है और ना ही अपने घर मे महफूज है।
अरे, जिस देश की संसद तक को आतंकवादी अपना निशाना बना चुके हो उस देश के आम आदमी की जान कितनी सस्ती होगी इसका अंदाजा तो कोई भी लगा सकता है। यही वो सारी बाते हैं जिन्होने हमारे अंदर बरसो से एक गुस्से को पाला हुआ है और ये गुबार अक्सर ए वैडनसडे जैसी फिल्मे देखकर निकल जाता है। या यूं कहिये कि हम ऐसी फिल्मे देखकर एक बंद अंधेरे सिनेमाहाल के अंदर अपने अंदर के अंधेरे को निकालने की कोशिश भर कर लेते है।
वैसे हमारी किस्मत मे इससे ज्यादा कुछ है भी नहीं वो तो भला हो सेंसर बोर्ड का वरना ऐसी फिल्मों को भड़काऊ कहकर बैन लगा दिया होता तो अपने दिल का गुबार निकालने का ये मौका भी हाथ से जाता रहता।

सपने का डर

आज जब सोकर उठा तो डरावने सपने का खौफ चेहरे पर लिये सुनहरी सुबह से सामना हुआ- घड़ी देखी तो 9 बज चुके थे- अखबार देखा तो फ्रंट पेज पर खबर थी एक और रईसजादे की बीएमडब्लू के नीचे 7 की मौत- दिल्ली की ब्लू लाइन का कहर अब भी जारी - सफदरजंग के पास ब्लू लाइन ने भी बनाया तीन को अपना निशाना - पहले नींद में चीते वाला डरावना सपना फिर अखबार की बुरी-बुरी खबरें समझते देर नहीं लगी कि कोई सपना सच हो न हो आज ये चीते का सपना तो जरूर सच होने वाला है- क्योकि सुबह के सपने हमेशा सच होते है- बिस्तर से उठकर शीशे के सामने पहुंचा तो सपने का खूनी मंजर किसी फिल्म की तरह आँखों के सामने से निकल गया- सपने में कल रात मैने देखा था कि कुछ चीते मेरा पीछा कर रहे है उनके नुकीले दाँतो और बड़े बड़े पंजो के सामने मैं खुद को असहाय सा महसूस करता हुआ गिरता पड़ता दौड़ता चला जा रहा हूँ और मेरे लाख चिल्लाने के बावजूद मुझे बचाने के लिए कोई भी आगे नहीं आ रहा है- सोचा मेरा जंगल से क्या वास्ता- ये सपना तो मेरे साथ सच हो ही नहीं सकता- चीते शहर मे आ नहीं सकते और मेरा जंगल तक जाने का कोई इरादा नहीं- कुछ इसी सपने से जुड़े सवाल जवाब करता मैं दफ्तर के लिए तैयार होता जा रहा था। घर से निकला तो करीब साढे दस बजने को आये थे- सड़क पर मैं किसी रिक्शे के इंतजार में बढ़ता जा रहा था । दफ्तर जाने की जल्दी होने के बावजूद सपने मे मेरा पीछा करते चीते मुझे अभी भी डरा रहे थे।

सड़क पर चलते चलते आते जाते ट्रकों और बसों को मैं देखता जा रहा था और अब सड़क पर ये चलतें भारी भरकम टायर वाले चीते मतलब बस और ट्रक भी मुझे डराने लगे थे- मैं रोड क्रास करने की कोशिश कर रहा था लेकिन नहीं कर पा रहा था लग रहा था जैसे अभी भी वो चीते मेरे पीछे पड़े है। उनके टायर मुझे उन नुकीले दाँतो का एहसास करा रहे थे जो अभी कुछ ही घंटो पहले मैने अपने बिस्तर पर पड़े पड़े देखे थे- सड़क पर हार्न की आवाजे मुझे उन चीतो की चिंघाड़ जैसी लग रही थी जिनसे बचने के लिए मैं थोड़ी ही देर पहले अपने सपने में भागा जा रहा था- सडको पर भागती छोटी गाड़िया मुझे उन खरगोशो की तरह लग रही थी जो जंगल में उसी वक्त अपनी जान बचाकर भागते है जब कोई शेर या चीता अपने शिकार के पीछे भागता है- अचानक उसी सड़क का नजारा मुझे बेहद डरावना सा लगने लगा था जिस सड़क से मेरा रोजाना आना जाना था- मेरी समझ मे नहीं आ रहा था कि मैं करूं तो क्या करूं... हाँ मुझे डर लग रहा था कि मैं एक जंगल के बीच फंस गया हूँ... क्या ये किसी जंगल से कम है। शायद हमारी सोच का ही फर्क है जो हम खुद को इन खूनी सड़को के बीच खुद को महफूज समझते है।

अगर हम वाकई सड़को पर सुरक्षित होते तो आज किसी को दिल्ली की ब्लू लाइन और रईसजादों की बीएमडब्लू से डर नहीं लगता-जंगल में तो तब भी पेट की भूख मिटाने के लिए खूनी खेल खेला जाता है लेकिन यंहा शहरों की सड़को पर तो पढा लिखा सभ्य समाज बेमतलब ऐसा घिनौना खेल खेलता है- कौन समझाये उन पढें लिखे ज़ाहिलो को कि हाथ में स्टियरिंग व्हील का मतलब जिम्मेदारी होती है वो भी सिर्प अपनी नहीं बल्कि उन सबकी जो आपके आसपास इस यकीन के साथ चल रहे है कि आप भी उन्ही की तरह इंसान है। अगर उन्हे ये पता चल गया कि आप आदमी की शक्ल मे जानवर है तो उनका ये यकीन जाता रहेगा और फिर सबको ये भी समझना जरूरी है कि सड़क पर गाड़ी लेकर निकलना कोई खेल नहीं है कि जब चाहा किसी की खुशी या किसी के सुहाग का सौदा कर लिया- और फिर अदालत में जुर्माना फेंक कर चलते बने ... यंहा सवाल सिर्फ आपका नहीं बल्कि दूसरो की जिंदगी का है जिसके लिए आपको कोई भी सौदा करने का कोई हक नहीं जिंदगी दे नहीं सकते तो लेने का हक किसने दिया आपको।

लेकिन इस सोच का क्या जिसे मुठ्ठीभर गैरजिम्मेदार लोगो ने कुछ इस तरह बदल दिया है कि विश्वास ही नहीं होता कि सामने से आ रही गाड़ी को भी कोई मेरे जैसा इंसान ही ड्राइव कर रहा है। शायद हमारी सोच ने ही शहरो को भी जंगल जैसा खतरनाक बना दिया है.. और मेरे सपने भी अब मुझे इसीलिए डराने लगे है- सच है कि अब भी सड़क पर कुछ चीते मेरा पीछा कर रहे है।

Wednesday 17 September 2008

लक्ष्यविहीन तमाशबीन

शेक्सपियर महोदय कहते है कि ये दुनिया एक रंगमंच की तरह है और हम सब यंहा अपने अपने किरदार जी रहे है- जो कुछ हम कहते सुनते या बोलते है वो हम सबकी स्क्रिप्ट है जो दिमाग की फाइल में पहले से फीड है- मतलब ये मानते ही हम सब सारे पाप पुण्य से मुक्त होकर ये मान लेते है कि जो हो रहा है वो तो होना ही था और जो होने वाला है वो भी तो होने ही वाला था तो हम उसे कैसे बदल सकते है- मतलब हमे किसी ने इस तमाशे मे तमाशा बनाकर भेज दिया है और हम भी उस भेजने वाले की तरह तमाशा बन कर ये सारा तमाशा देखते रहे- दूसरा तर्क गीता सार का ये है कि कर्म किये जा और फल की चिंता मत कर- अरे भई कोई ये बताये कि कर्म के फल की चिंता किये बगैर कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहने से भी क्या कभी किसी का भला हुआ है- ये दिमाग किस लिये फिट किया गया है- चाहे ऐसे तमाशा बन कर तमाशा देखते रहो या फिर जो होना है होगा सोच कर बैठे रहो दोनो ही हालातो मे जीवन निरूद्देश्य हो जाता है जो मेरे हिसाब से सबसे बड़ी सजा है खुद अपनेआप के लिए।
अगर जीवन मे कोई मकसद नही होगा तो हर सुबह क्या सोचकर उठोगे- यही कि चलो आज सिर्फ कर्म करना है और फल की चिंता तो करनी नहीं है- तो चलो जोश से भर जाओ उठ जाओ काम पर जाओ कुछ मिलेगा कि नही ये तो पता नहीं लेकिन तुम पूरे जोश में काम करो
या शायद ये सोचकर उठोगे कि रंगमंच पर सूरज निकल आया है अपने दिमाग मे फीड डायलॉग बोलना शुरू कर दो- शुरू कर दो आज का तमाशा ऊपर बैठा कोई बड़ा बेकरार हो रहा है हमारा तमाशा देखने के लिए-इन सारी सोच से जिंदगी नहीं चलती- पेट नहीं भरता इच्छायें पूरी नही होती और सबसे बड़ी बात कोई संतोष नहीं मिलता और जंहा संतोष नही मिले वहां रहना दूभर मानिये-तो जीवन जीना है तो मकसद तो चाहिये क्योकि पूरी जिंदगी महज तमाशबीन बनकर नहीं कटती कुछ न कुछ तो करना पड़ता है और कुछ न कुछ करने के लिए छोटे मोटे ही सही मकसद तो बनाने पड़ते है- ठीक वैसे ही जैसे बड़ी बड़ी कंपनिया अपने टारगेट सैट करती है कि हमे उस महीने ये अचीव करना है- इसके नतीजे दो ही होते है या तो आप टारगेट अचीव करके खुशियां मनाते है या फिर टारगेट अचीव न कर पाने की हालत में सोचते हैं कि क्या और बेहतर हो सकता था।
कहने का मतलब है कि वक्त काटने के लिए सही या जिंदगी को इंटरैस्टिंग बनाने के लिए ही सही हमे कुछ न कुछ लक्ष्य तो सैट करना ही शेक्सपियर के कथन से चलने लगे तो न तो कोई छात्र परीक्षा मे ज्यादा नंबर लाने की कोशिश करेगा न पुलिस चोर को पकडेगी न कोई आतंकवाद के खिलाफ आवाज उठायेगा बस हर कोई लक्ष्यविहीन तमाशबीन बन कर ही रह जायेगा।

Tuesday 16 September 2008

ज़िंदगी मिलेगी न दोबारा...फिर भी ऐसे ही जीना चाहते हो ?

अभी कही फिल्म 'रॉक ऑन ' का वो गाना सुन रहा था जिसके बोल है - ज़िंदगी मिलेगी न दोबारा.....

वैसे कहने को तो ये सिर्फ एक गाने के बोल है लेकिन दिल मे तीर की तरह चुभ गये। वाकई अगर जिंदगी एक ही बार मिलनी है तो क्या आप उसे ऐसे ही जीना चाहेगे जैसे कि जी रहे है। शायद ज्यादातर लोगो का जवाब होगा नहीं क्योकि जैसे ही हमे पता चलता है कि कोई चीज़ हमे दोबारा नही मिलने वाली तो अचानक उसकी कीमत बढ जाती है फिर आप उसे संभाल कर रखना चाहते है ऐसे ही गंवाना नही चाहते और फिर ये तो जिंदगी का मामला है तो फिर कोई रिस्क क्यो ?

वैसे ये रिस्क नाम की जो चीज है वो भी तभी लेने का मन करता है जब ये पता हो कि मौका आखिरी है नही तो हम हर चीज को आखिरी वक्त तक बस ट्राइ ही करते रहते है कि शायद ठीक हो ही जाये लेकिन जैसे ही कही से ये फरमान आता है कि बस अब आपका वक्त खत्म हुआ समझो तो वही से शुरू हो जाता है हमारा वक्त ,उसे सहेजने का या यूं कहे कि फैसला लेने का।

अक्सर इसीलिए किसी भी चीज की लास्ट डेट पर ही लोगो को वो काम याद आता है फिर चाहे बिजली का बिल भरने की बात हो- या स्कूल की फीस देनी हो - जैसे ही पता चला कि वक्त अब खत्म हो रहा है वही चीज जो अभी तक फालतू की लगती थी- उसके भाव बढ जाते है।



सही वक्त पर सही फैसला लेना होता है ज़रूरी

कई बड़ी कंपनियो मे बड़े-बड़े आधिकारियो की नौकरिया इसी बात पर चली जाती है कि वो सही वक्त पर कोई फैसला ले ही नही पाये- अजी सही गलत तो छोडिये फैसला न कर पाना तो गलत फैसला लेने से भी बड़ा अवगुण है- क्योकि फैसला न लेकर आप वक्त को अपनी मुठ्ठी मे कैद करने की कोशिश करते है लेकिन ऐसा करना तो प्रकृति के विपरीत है- बस आप प्रकृति के उलट गये और प्रकृति ने दिखा दिया अपना कमाल--आप हो जाते है तुरंत आउट-- क्योकि वक्त और प्रकृति चलने का नाम ,है बदलने का नाम है, ऱूक कर वक्त को रोकने की कोशिश करने का नही- और फैसला न लेकर आप प्रकृति की प्रकृति के उलट काम कररहे होते है- इसलिये जवाब भी करारा मिलता है।

ये सोच बदल सकती है आपकी ज़िन्दगी

अगर आपको ये बात पक्की तरह समझा दी जाये कि आपको ये जिंदगी दोबारा नही मिलेगी तो आपके आस पास क्या क्या बदल जायेगा- हो सकता है आप अपने कुछ ऐसे अरमान पूरे करना चाहे जो आपने पहले कभी किसी के साथ डिस्कस तक न किये हो- या फिर आप जो अपनी रोजाना की जिंदगी में दिनभर छल कपट करते है उससे आपका मन हट जाये-- आप लोगो का दिल दुखाना छोड़ दे- और हो ये भी सकता है कि आप पहले से ज्यादा मतलबी हो जाये इस तर्क के साथ कि भई मेरी जिंदगी तो मुझे दोबारा मिलने से रही इसलिए भलाई इसी मे है कि अपनी मन मर्जी की काटी जाये।

सोच बदलते ही बदल जायेगी आपकी ज़िन्दगी 

बात चाहे जो हो लेकिन इतना तय है कि जिंदगी दोबारा न मिलने की बात जैसे ही आप सोचेगे आप के नजरिये मे बदलाव आना तय मानिये और ये बदलाव होगा आपके फायदे के लिए ही। आप या तो मनमर्जी के काम करके खुद को संतुष्ट करने की कोशिश करेगे या फिर भलाई के कामो मे मन लगाकर ऊपर वाले को प्रभावित करने मे लगे रहेगे- कि देखो मैं कितना भला हूँ और अब तुम्हारे पास आ रहा हूँ तो मेरा भी ऐसे ही ख्याल रखना जैसे मैं दीन दुखियो की भलाई करके उनका रख रहा हूँ। दोनो ही सूरतो मे आपका ही फायदा है मन की दबी हुई इच्छाये पूरी हो या फिर भलाई का पुण्य मिले- संतुष्टि तो मिलेगी ही--कुछ ऐसी ही बाते सुनकर मैं जावेद अख्तर को शुक्रिया कहने की कोशिश कर रहा हूँ जिन्होने इतने खूबसूरत शब्दो मे लोगो को जिंदगी जीने का नया तरीका सिखाया है- तो इंतजार किस बात है- आप भी जी लीजिये अपनी जिंदगी अपनी शर्तो के साथ- याद रहे ये जिंदगी मिलेगी ना दोबारा।

ज़िंदगी मिलेगी न दोबारा

अभी कही फिल्म रॉक ऑन का वो गाना सुन रहा था जिसके बोल है - ज़िंदगी मिलेगी न दोबारा- कहने को तो गाने के बोल है लेकिन दिल मे तीर की तरह चुभ गये- वाकई अगर जिंदगी एक ही बार मिलनी है तो क्या आप उसे ऐसे ही जीना चाहेगे जैसे कि जी रहे है- शायद ज्यादातर लोगो का जवाब होगा नही- क्योकि जैसे ही हमे पता चलता है कि फंला चीज़ हमे दोबारा नही मिलने वाली तो अचानक जैसे उसकी कीमत बढ जाती है- फिर आप उसे संभाल कर रखना चाहते है- यू ही गंवाना नही चाहते और फिर ये तो जिंदगी का मामला है- तो फिर कोई रिस्क क्यो -- वैसे ये रिस्क नाम की जो चीज है वो भी तभी लेने का मन करता है जब ये पता हो कि मौका आखिरी है-- नही तो हम हर चीज को आखिरी वक्त तक बस ट्राइ ही करते रहते है कि शायद ठीक हो ही जाये लेकिन जैसे ही कही से ये फरमान आता है कि बस अब आपका वक्त खत्म हुआ समझो तो वही से शुरू हो जाता है हमारा वक्त- उसे सहेजने का या यूं कहे कि फैसला लेने का-- अक्सर इसीलिए किसी भी चीज की लास्ट डेट पर ही लोगो को वो काम याद आता है फिर चाहे बिजली का बिल भरने की बात हो- या स्कूल की फीस देनी हो - जैसे ही पता चला कि वक्त अब खत्म हो रहा है वही चीज जो अभी तक फालतू की लगती थी- उसके भाव बढ जाते है--कई बड़ी कंपनियो मे बड़े-बड़े आधिकारियो की नौकरिया इसी बात पर चली जाती है कि वो सही वक्त पर कोई फैसला ले ही नही पाये- अजी सही गलत तो छोडिये फैसला न कर पाना तो गलत फैसला लेने से भी बड़ा अवगुण है- क्योकि फैसला न लेकर आप वक्त को अपनी मुठ्ठी मे कैद करने की कोशिश करते है लेकिन ऐसा करना तो प्रकृति के विपरीत है- बस आप प्रकृति के उलट गये और प्रकृति ने दिखा दिया अपना कमाल--आप हो जाते है तुरंत आउट-- क्योकि वक्त और प्रकृति चलने का नाम ,है बदलने का नाम है, ऱूक कर वक्त को रोकने की कोशिश करने का नही- और फैसला न लेकर आप प्रकृति की प्रकृति के उलट काम कररहे होते है- इसलिये जवाब भी करारा मिलता है।

अब आप जरा ये सोच कर बताइये कि अगर आपको ये बात पक्की तरह समझा दी जाये कि आपको ये जिंदगी दोबारा नही मिलेगी तो आपके आस पास क्या क्या बदल जायेगा- हो सकता है आप अपने कुछ ऐसे अरमान पूरे करना चाहे जो आपने पहले कभी किसी के साथ डिस्कस तक न किये हो- या फिर आप जो अपनी रोजाना की जिंदगी में दिनभर छल कपट करते है उससे आपका मन हट जाये-- आप लोगो का दिल दुखाना छोड़ दे- और हो ये भी सकता है कि आप पहले से ज्यादा मतलबी हो जाये इस तर्क के साथ कि भई मेरी जिंदगी तो मुझे दोबारा मिलने से रही इसलिए भलाई इसी मे है कि अपनी मन मर्जी की काटी जाये।

बात चाहे जो हो लेकिन इतना तय है कि जिंदगी दोबारा न मिलने की बात जैसे ही आप सोचेगे आप के नजरिये मे बदलाव आना तय मानिये-और ये बदलाव होगा आपके फायदे के लिए ही- आप या तो मनमर्जी के काम करके खुद को संतुष्ट करने की कोशिश करेगे या फिर भलाई के कामो मे मन लगाकर ऊपर वाले को इम्प्रैस करने मे लगे रहेगे- कि देखो मैं कितना भला हूँ और अब तुम्हारे पास आ रहा हूँ तो मेरा भी ऐसे ही ख्याल रखना जैसे मैं दीन दुखियो की भलाई करके उनका रख रहा हूँ। दोनो ही सूरतो मे आपका ही फायदा है मन की दबी हुई इच्छाये पूरी हो या फिर भलाई का पुण्य मिले- संतुष्टि तो मिलेगी ही--कुछ ऐसी ही बाते सुनकर मैं जावेद अख्तर को शुक्रिया कहने की कोशिश कर रहा हूँ जिन्होने इतने खूबसूरत शब्दो मे लोगो को जिंदगी जीने का नया तरीका सिखाया है- तो इंतजार किस बात है- आप भी जी लीजिये अपनी जिंदगी अपनी शर्तो के साथ- याद रहे ये जिंदगी मिलेगी ना दोबारा।

सहूलियत का दाम

ब्लाग्स ने इंसान की जिंदगी को खुली किताब की तरह बना दिया है कोई भी कही भी बैठकर पढ सकता है जान सकता है कि किसी दूसरे की जिंदगी मे कैसी उठा- पटक का खेल चल रहा है-बशर्ते लोग सच लिखने की हिम्मत करे- जो कि काफी कम होता है- लोग कहते है कि कंप्यूटर का ये युग हमे एक दूसरे से दूर ले जा रहा है लेकिन मेरी सोच इससे ठीक उलट है- मेरा मानना है कि कंप्यूटर के इस युग मे हम पहले से कही ज्यादा नजदीक आ गये है फेसबुक और आर्कुट जैसी सोशल वैबसाइट्स के जरिये हमे मौका मिलता है एक साथ कई सारे लोगो के टच मे रहने का- जरा सोचिये अगर ये नही होते और आपकी मशरूफियत का भी यही आलम होता तो शायद कुछ महीनो मे लोग आपकी शक्ल तक भूल जाते- क्योकि आज हर आदमी अपने काम मे इतना व्यस्त है कि उसे अपने पड़ोसी से हाय-हलो करने तक का वक्त नही-

आज वक्त पहले की तुलना मे काफी बदल गया है- मुझे याद है कि कोई ७ बरस पहले ज्यादातर लोग एसटीडी काल्स पर लंबी बात नही कर पाते थे और आज आलम ये है कि पूरी की पूरी कथा पुराण फोन पर हो जाती है क्योकि अब फोन पर लंबी दूरी की बात न तो पहले जैसी महंगी है और ना कोई ये शिकायत करता है कि आवाज साफ नही आ रही-

अभी कल ही मैं कोई २५ बरस पहले आई फिल्म अर्थ देख रहा था जिसमे कुलभूषण खरबंदा को एसटीडी पर बात करते दिखाया गया वो जितनी जोर से फोन पर गोवा से मुंबई बात कर रहे थे उसे देखकर आज की जैनरेशन तो उन्हे पागल ही समझेगी लेकिन जो लोग पुराने है उन्हे अच्छी तरह से मालुम है कि पहले एस टी डी पर बात करना उतना सुलभ नही था जितना कि आज है-

किसी हद तक फिल्मे देखकर भी हमे एहसास हो जाता है कि पिछले २५ बरसो मे हमने कई सारे बदलाव देखे है- मसलन १५ साल पुरानी फिल्म मे आप रईस से रईस किरदार निभाने वाले किसी भी एक्टर के हाथ मे मोबाइल नही देख सकते और आज आलम ये है कि किसानो से लेकर सब्जी बेचने वाले तक के हाथ मे मोबाइल फोन है- ये शायद मशीनीकरण का ही कमाल है कि अब लंदन - लंदन जैसा दूर नही लगता और ई मेल और चैट के जरिये आपकी बात पलक झपकते ही अमेरिका पहुच जाती है और आपको पहले की तरह अपनी चिठ्ठी पहुचने का इंतजार भी नही करना पड़ता-

कहते है हर कामयाबी की कीमत चुकानी पड़ती है- हर सहूलियत का कुछ न कुछ तो दाम होता ही है- और शायद इतनी सारी सहूलियतो का दाम हम कुछ इसी तरह अदा कर रहे है कि आज किसी भी सोशल साइट्स पर जाते ही आपकी पर्सनल लाइफ खत्म- आप अपने घर मे कैसे रहते है क्या पहनते है सब कुछ सिर्फ आपका नही रह जाता बल्कि एक माउस क्लिक से आप पूरी दुनिया की संपत्ति बन जाते है- और अगर आप खुद किसी सोशल साइट के मैंबर न भी बने लेकिन अगर कोई दूसरा आपकी फोटो मोबाइल से खींच कर कही पेस्ट कर दे तो आपकी हर पोल खुल ही गई समझिये- तो जनाब सभंल कर जब भी आप सड़क पर या पब्लिक प्लेस पर होते है तो ध्यान रहे कि कई सारे मोबाइल आप पर नजर रखे हुए है- एक क्लिक आपसे आपकी पर्सनल लाइफ खींच सकती है-- तो याद रहे जाने अनजाने मे आप अपनी सहूलियत के दाम तो चुकता कर ही रहे है। यही तो है आप की सहूलियत का दाम।