शेक्सपियर महोदय कहते है कि ये दुनिया एक रंगमंच की तरह है और हम सब यंहा अपने अपने किरदार जी रहे है- जो कुछ हम कहते सुनते या बोलते है वो हम सबकी स्क्रिप्ट है जो दिमाग की फाइल में पहले से फीड है- मतलब ये मानते ही हम सब सारे पाप पुण्य से मुक्त होकर ये मान लेते है कि जो हो रहा है वो तो होना ही था और जो होने वाला है वो भी तो होने ही वाला था तो हम उसे कैसे बदल सकते है- मतलब हमे किसी ने इस तमाशे मे तमाशा बनाकर भेज दिया है और हम भी उस भेजने वाले की तरह तमाशा बन कर ये सारा तमाशा देखते रहे- दूसरा तर्क गीता सार का ये है कि कर्म किये जा और फल की चिंता मत कर- अरे भई कोई ये बताये कि कर्म के फल की चिंता किये बगैर कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहने से भी क्या कभी किसी का भला हुआ है- ये दिमाग किस लिये फिट किया गया है- चाहे ऐसे तमाशा बन कर तमाशा देखते रहो या फिर जो होना है होगा सोच कर बैठे रहो दोनो ही हालातो मे जीवन निरूद्देश्य हो जाता है जो मेरे हिसाब से सबसे बड़ी सजा है खुद अपनेआप के लिए।
अगर जीवन मे कोई मकसद नही होगा तो हर सुबह क्या सोचकर उठोगे- यही कि चलो आज सिर्फ कर्म करना है और फल की चिंता तो करनी नहीं है- तो चलो जोश से भर जाओ उठ जाओ काम पर जाओ कुछ मिलेगा कि नही ये तो पता नहीं लेकिन तुम पूरे जोश में काम करो
या शायद ये सोचकर उठोगे कि रंगमंच पर सूरज निकल आया है अपने दिमाग मे फीड डायलॉग बोलना शुरू कर दो- शुरू कर दो आज का तमाशा ऊपर बैठा कोई बड़ा बेकरार हो रहा है हमारा तमाशा देखने के लिए-इन सारी सोच से जिंदगी नहीं चलती- पेट नहीं भरता इच्छायें पूरी नही होती और सबसे बड़ी बात कोई संतोष नहीं मिलता और जंहा संतोष नही मिले वहां रहना दूभर मानिये-तो जीवन जीना है तो मकसद तो चाहिये क्योकि पूरी जिंदगी महज तमाशबीन बनकर नहीं कटती कुछ न कुछ तो करना पड़ता है और कुछ न कुछ करने के लिए छोटे मोटे ही सही मकसद तो बनाने पड़ते है- ठीक वैसे ही जैसे बड़ी बड़ी कंपनिया अपने टारगेट सैट करती है कि हमे उस महीने ये अचीव करना है- इसके नतीजे दो ही होते है या तो आप टारगेट अचीव करके खुशियां मनाते है या फिर टारगेट अचीव न कर पाने की हालत में सोचते हैं कि क्या और बेहतर हो सकता था।
कहने का मतलब है कि वक्त काटने के लिए सही या जिंदगी को इंटरैस्टिंग बनाने के लिए ही सही हमे कुछ न कुछ लक्ष्य तो सैट करना ही शेक्सपियर के कथन से चलने लगे तो न तो कोई छात्र परीक्षा मे ज्यादा नंबर लाने की कोशिश करेगा न पुलिस चोर को पकडेगी न कोई आतंकवाद के खिलाफ आवाज उठायेगा बस हर कोई लक्ष्यविहीन तमाशबीन बन कर ही रह जायेगा।
वैसे तो फुर्सत मुश्किल से मिलती है पर इन दिनो तो फुर्सत की कोई कमी नहीं इसलिये सारी कसर निकाली जा रही है...
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3 comments:
बढ़िया लेखन. गंभीर बात
उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत्...
Different perspective.
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