पिछले हफ्ते नसीरुद्दीन शाह की फिल्म ए वैडनैसडे देखी- बेहद पसंद आई- पसंद आने की वजह नसीर और अनुपम खेर की एक्टिंग से ज्यादा ये थी कि इस फिल्म ने मेरे जैसे एक आम इंसान के अंदर दबे गुबार को निकालने का मौका दिया।
ये फिल्म हर उस उस इंसान के लिए एक स्ट्रेस बस्टर साबित हुई जो आज अपने स्कूल जाते बच्चे को देखकर ये चिंता करने लगता है कि कहीं कोई उसकी स्कूल बस या क्लास के अंदर बम न रख दे- शायद आप खुद भी ऐसा कई बार सोचते होगे कि आप अगर एक दिन घर से बाहर निकले और वापस नहीं आये तो आपके घरवालो का क्या होगा- भले ही कहते न हो पर दिल मे ख्याल आया जरूर होगा- यंहा आप मेरा ब्लॉग पढ़ रहे है और उधर जो कोई आपका रिश्तेदार या दोस्त कोई फ्लाइट या ट्रेन ले रहा है उसके साथ कोई हादसा हो गया तो- ये वो ख्याल है जो जाने अनजाने हम आप जैसे आम इंसानो को आता जरूर है- फिर हम शुभ शुभ बोलो शुभ शुभ सोचो कहकर ऐसे ख्याल से खुद को दूर कर लेते है लेकिन सिर्फ ऐसा कह देने भर से आप की मुश्किल खत्म नहीं हो जाती क्योकि ये तो सच है कि आज इस धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश में आम आदमी न तो घर के बाहर सुरक्षित है और ना ही अपने घर मे महफूज है।
अरे, जिस देश की संसद तक को आतंकवादी अपना निशाना बना चुके हो उस देश के आम आदमी की जान कितनी सस्ती होगी इसका अंदाजा तो कोई भी लगा सकता है। यही वो सारी बाते हैं जिन्होने हमारे अंदर बरसो से एक गुस्से को पाला हुआ है और ये गुबार अक्सर ए वैडनसडे जैसी फिल्मे देखकर निकल जाता है। या यूं कहिये कि हम ऐसी फिल्मे देखकर एक बंद अंधेरे सिनेमाहाल के अंदर अपने अंदर के अंधेरे को निकालने की कोशिश भर कर लेते है।
वैसे हमारी किस्मत मे इससे ज्यादा कुछ है भी नहीं वो तो भला हो सेंसर बोर्ड का वरना ऐसी फिल्मों को भड़काऊ कहकर बैन लगा दिया होता तो अपने दिल का गुबार निकालने का ये मौका भी हाथ से जाता रहता।
वैसे तो फुर्सत मुश्किल से मिलती है पर इन दिनो तो फुर्सत की कोई कमी नहीं इसलिये सारी कसर निकाली जा रही है...
Monday, 22 September 2008
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1 comment:
पिछले हफ्ते ही मैंने भी ये फिल्म देखी थी। शायद जो कुछ मेरे मन में चल रहा था..वो आपने लिख
दिया..। मगर मुझे लगता है..हमारे जैसे लोगों की संख्या करोड़ों में है..जो इस फिल्म की थीम से वास्ता रखते हैं...। अच्छा लिखा है आपने।
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