Sunday 3 May 2020

बहुत कमाल थे इरफान

इरफान तो कमाल ही थे। मुझे उनसे मेरी पहली मुलाकात तो याद नही पर ये ज़रूर याद है कि साल 2003 मे आई उनकी पहली कॉमर्शियल फिल्म 'हासिल' देखने के बाद जब मैने उन्हे फोन किया तो वो बच्चो की तरह उत्साहित हो गये। फिल्म हासिल मैने मुंबई में बान्दरा के गैलेक्सी थियेटर में देखी थी जैसे ही बाहर निकला तो इरफान को फोन मिलाया  तो उन्होने तपाक से पूछा कि तुमने हॉल फिल्म  देखी तो मेरे कौन कौन से   डायलॉग पर तालियां बजी...उन्हे अपने काम  के बारे मे जानने का काफी शौक था। 'हासिल' मे जो कैरेक्टर उन्होने निभाया था मै वैसे ही एक कैरेक्टर से अपने शहर बरेली मे मिल चुका था  वो भी एक छात्र नेता था जब मैने उन्हे बताया कि वो बिल्कुल वैसे ही लग रहे थे जैसे कि छात्र नेता होते है तो वो काफी खुश हुए ।

मेरा जब भी  उनसे मिलना होता था तो मै उनसे जरूर पूछता कि इरफान भाई अब अगली कौन सी फिल्म कर रहे हैं और उनका जवाब यही होता कि कुछ नए की तलाश है । जो भी होगा बिल्कुल नया होगा मुझे उनका काम 'मकबूल' में भी पसंद आया 'पान सिंह तोमर' में भी पसंद आया 'लंचबॉक्स' में भी पसंद आया।

 साल 2009 -2010 के दौरान जिन दिनों मै दिल्ली में था E 24 के साथ तो उन दिनों भी मेरा इरफान भाई से मिलना कई बार हुआ। अपनी हर फिल्म के प्रमोशन के लिये वो दिल्ली आते रहते थे।  वह हर बार गर्मजोशी से मिलते थे खैरियत पूछते थे और कभी एहसास भी नहीं होने देते थे कि वह दुनिया के सबसे कामयाब फिल्म अभिनेताओं में से एक हैं। सामने वाले की बात को पूरी तरह सुनना, सुनकर उसे जवाब देना यही उनकी आदत थी। सात जनवरी को हर साल मै उन्हे उनके जन्मदिन की मुबारकवाद देता था और उनका जवाब भी तुरन्त आता था।

 मुझे याद है मेरी उनसे आखरी मुलाकात 'करीब करीब सिंगल' के दौरान साल 2017 के नवंबर महीने में हुई थी और वह हमेशा की तरह पूरी तरह जुटे हुए थे अपनी फिल्म के प्रमोशन में,  ये  जो फोटो आप यहां देख रहे हैं यह उसी वक्त का फोटो है।  मुझे जरा भी अंदाजा नहीं था कि इरफान भाई से ये मेरी आखिरी मुलाकात है और अगर मैं ठीक से याद करूं तो यह फोटो खुद उन्होंने कह कर ही खिंचवाया था।

 असल में हमारा इंटरव्यू पूरा होने के बाद एक ग्रुप फोटो खींचा जा चुका था उसके बाद वह खुद ही बोले एक और फिर मैंने अपने सेल फोन का कैमरा ऑन कर लिया। किसे पता था कि ये उनसे मिलने का मेरा आखिरी मौका है उनसे मिलने का इस वक्त वह वाकया मुझे पूरी तरह याद आ गया है और आगे मैं कुछ भी लिख नहीं सकता क्योंकि अब हाथ काम नहीं कर रहे हैं...

ऋषि कपूर की 'खुल्लम खुल्ला' से कुछ और यादें

जैसे आम तौर पर मियां बीवी के बीच झगड़े होते हैं और उनके बीच बातचीत बंद हो जाती है वैसा ही कुछ नीतू और ऋषि कपूर के बीच भी होता था और इस बात का जिक्र उन्होंने अपनी किताब खुल्लम-खुल्ला ने साफ किया है उन्होंने लिखा कि फिल्म 'जब तक है जान' के दौरान साल 2012 में उनकी और नीतू के बीच बातचीत बंद थी तब भी वह फिल्म में साथ काम कर रहे थे।

कुछ ऐसा ही दौर पहले भी आया था जब ये दोनों फिल्म  'झूठा कहीं का' के एक गाने 'जीवन के हर मोड़ पर...' को शूट कर रहे थे और इस दौरान भी दोनों के बीच बातचीत नहीं होती थी। वैसे ऐसा कम ही देखने को मिलता है  कि जब कोई अपने जीवन के कड़वे पलो  को भी याद रख पाए उनके बारे में खुल कर बात कर पाए और उनसे कुछ सीख देने की कोशिश करे पर चिन्टू वाकई अलग थे।


साल 2015 में अपनी शादी की 35 वीं सालगिरह ऋषि कपूर और नीतू कपूर नहीं मना सके क्योंकि उन दिनों
ऋषि कपूर परेश रावल के साथ पटेल की पंजाबी शादी नाम की फिल्म में काम कर रहे थे उनके पास वक्त नहीं था और दोनों के बीच बातचीत बंद लेकिन इस सब के बाद भी दोनों ने एक दूसरे का साथ निभाया और एक दूसरे को समझने की हर बार कोशिश की ऋषि कहते हैं कि ऊपर वाले पर उनका विश्वास हमेशा से रहा है और वह हमेशा से ही रोजाना पूजा करते रहे फिर भी उन्होंने कहा कि उनके धर्म और उनके भोजन का कोई सीधा संबंध नहीं है वह बीफ खाने वाले हिंदू के तौर पर ही जाने जाते हैं क्योंकि उनका मानना था कि भोजन का संबंध किसी तरह की श्रद्धा या धर्म से नहीं हो सकता यह सारी बातें बार-बार एक बात साफ करती हैं कि वह व्यक्ति बहुत साफ दिल था।

पत्नी नीतू  धोती थी उनकी सफेद शर्ट

 फिल्म प्रेम रोग की शूटिंग के दौरान जब ऋषि कपूर हॉलैंड गए थे उस वक्त नीतू कपूर और उनकी मां भी उनके साथ थे फिल्म का स्टाफ ज्यादा बड़ा नहीं था इसलिए नीतू खुद चाय बनाती और सबको पिलाती थी शूटिंग के दौरान ऋषि कपूर और पद्मिनी कोल्हापुरे को सफेद कपड़े पहने थे इसलिए नीतू कपूर खुद पद्मिनी कोल्हापुरे की सफेद साड़ी और ऋषि कपूर की सफेद शर्ट शूटिंग के बाद रोज शाम को धोती थी यह एक तरह का त्याग था नीतू कपूर का ऋषि के लिए।  वह अपने जमाने की नामी स्टार थी और शादी के बाद उन्होने सब कुछ छोड़ दिया और पति की सेवा में लग गई यह बहुत बड़ा फैसला था जिसको लेने में नीतू की मां ने थी उनकी मदद की थी।

21 की उम्र में फिल्मी कैरियर शुरू होता है जबकि नीतू सिंह ने अपनी शादी के लिये  21 की उम्र में हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री को अलविदा कह दिया था वो भी खुशी खुशी।


अपनी ससुराल में दस साल तक रहे ऋषि कपूर

 शादी के कुछ दिनों बाद ही ऋषि कपूर ने अपनी ससुराल में रहना शुरू कर दिया था क्योंकि उनके चेंबूर वाले घर में कुछ मरम्मत का काम चल रहा था उस जमाने में लोग दो सितारों का काफी मजाक बनाया करते थे एक ऋषि कपूर जो अपनी ससुराल में पाली हिल में रहते थे और दूसरे ही पाली हिल में रहने वाले बडे सितारे थे दिलीप कुमार जो सायरा बानो की मम्मी के घर में रहते थे । उस ज़माने में कहा जाता था कि बॉलीवुड में दो बड़े सितारे हैं जो पाली हिल जैसे पॉश इलाके में रहते हैं तो है पर घर जमाई बनकर।

ऋषि कपूर अपनी ससुराल में करीब 10 साल तक रहे। जब रणबीर कपूर का जन्म हुआ उस वक्त भी ऋषि कपूर अपनी ससुराल में ही रह रहे थे उसके कुछ सालों बाद ऋषि कपूर ने अपनी ससुराल के पास ही पाली हिल के इलाके में एक प्लॉट खरीदा और उसमें अपना बंगला बनाया नाम रखा कृष्णा राज अपनी मम्मी के नाम पर।


फिल्मों में वापसी के लिये की नीतू की मदद

 2010 में आई फिल्म दो दूनी चार में ऋषि कपूर के साथ जूही चावला को लिया जाना था लेकिन जूही चावला एक मां का किरदार निभाने के लिए तैयार नहीं थी इसलिए ऋषि कपूर ने खुद नीतू को रिक्वेस्ट किया कि वो उनके साथ काम करें नीतू ने पहले तो इंकार कर दिया पर ऋषि कपूर ने उन्हें किसी तरह अपनी फिल्म के डायरेक्टर हबीब फैजल से मिलने के लिए तैयार कर लिया दोनों सिर्फ 20 मिनट के लिए मिलने गए थे और 1 घंटे के बाद बाहर निकले तब तक नीतू फिल्म की पूरी कहानी सुन चुकी थी और मन ही मन यह फैसला कर चुकी थी कि वह ये फिल्म जरूर करेंगी लेकिन यह सफर भी आसान नहीं रहा क्योंकि नीतू लगातार अपने डायलॉग्स भूलती रहीं यहां तक कि पहले दिन की शूटिंग बड़ी मुश्किल से पूरी हुई।

 असल में नीतू पूरी तरह से भूल चुकी थी डायलॉग कैसे याद रखे जाते हैं क्योंकि वह कई सालों के बाद किसी फिल्म के सेट पर काम करने वापस आईं थीं  और  बिना चश्मा पहने कुछ भी समझ नहीं आता था ऋषि कपूर ने उनको नए सिरे से ट्रेनिंग दी और सिखाया कि काम कैसे करना है।

अपना फिल्मी करियर छोड़ने के बाद नीतू ने सिर्फ तीन ही फिल्में की 'दो दूनी चार' 2010 में और 'जब तक है जान' 2012 में और यह दोनों ही फिल्में ऋषि कपूर के साथ की इसके बाद वह फिल्म 'बेशरम' में काम करने को तैयार हुई साल 2013 में क्योंकि इसमें उन्हें अपने बेटे रणबीर और पति ऋषि दोनों के साथ काम करने का मौका मिला था

ऋषि कपूर :गाड़ी से उतरे तो हाथ में गिलास और अपनी कहानी भी लिखी तो 'खुल्लम-खुल्ला'

अगर कोई अपनी ऑटोबायोग्राफी का नाम खुल्लम-खुल्ला रखें और खासकर तब जब वो ऐसी दुनिया से ताल्लुक रखता हो जहां सारा खेल इमेज का होता है, जहां लोग अपनी बनावट की छवि का इस्तेमाल लोकप्रियता पाने के लिए करते हैं तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वो इंसान कितना बेबाक होगा-कितना बेफिक्र होगा। कुछ ऐसे ही थे ऋषि कपूर,अपनी बात साफ कहना और खुलकर कहना। हाल ही में उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा था कि कोरोना संकट केलॉकडाउन में शराब की दुकानें खोल देनी चाहिए क्योंकि इससे लोगों को अपना दिल हल्का करने का मौका मिलेगा। अब, आप ही बताइए कौन सा ऐसा सितारा है बॉलीवुड में जो हमारे समाज में शराब जैसी चीज़ पर इस तरह की बात खुलकर अपनी बात रखने की हिम्मत रखता है। यह एक छोटा सा उदाहरण है समझने के लिए कि ऋषि कपूर का व्यक्तित्व कैसा था।

फ़िल्म के बारे में सुनकर आटोग्राफ देने की प्रैक्टिस कर डाली 

मैंने जब उनकी ऑटो बायोग्राफी 'खुल्लम-खुल्ला' पढ़ी तो उसमें एक मजेदार किस्से का जिक्र है। वो ये कि जब पहली बार तंगी की हालत में राज कपूर ने अपने बेटे ऋषि कपूर को बॉलीवुड में बतौर हीरो लॉन्च करने की बात सोची और उनको बताया तो पिता की बात सुनकर ऋषि कपूर साहब सीधे अपने कमरे में गए और ऑटोग्राफ देने की प्रैक्टिस करने लगे। दरअसल बचपन से उनका सपना एक फिल्मी कलाकार बनना, और जब बॉलीवुड में शुरुआत हुई तो पहली फिल्म ही सुपर डुपर हिट हो गई। वो रातोंरात स्टार बन गए, ऋषि कपूर ने अपनी ऑटोबायोग्राफी में साफ लिखा है कि उस कामयाबी ने उनका दिमाग खराब कर दिया था। वो खुद को वाकई बहुत बड़ा स्टार समझने लगे थे। आत्मकथा में इस स्वीकारोक्ति से ही साबित होता है कि वो दिल के किस कदर साफ थे, उन्होंने दिल में छिपाकर कुछ भी नहीं रखा। जैसा सोचा- जैसा समझा उसको साफ तरीके से ज़ाहिर किया। अपने आप में ही एक ऐसा गुण है जो आमतौर पर देखने को नहीं मिलता है खासकर उन लोगों में जो कि इमेज के बिजनेस में होते हैं।

खाने-पीने का शौकीन अभिनेता जिसे चिढ थी हिप्पोक्रेसी से

मुझे याद है एक फिल्मी पार्टी अटेंड करने के लिए पहुंचे ऋषि कपूर जब अपनी गाडी से उतरे तो उनके हाथ में गिलास था, अब यह कहने की जरूरत नहीं है कि उस गिलास में क्या था। तो सितारे जहां पार्टी में आने के बाद इंजॉय करना शुरू करते हैं ऋषि कपूर इतने जिंदादिल थे कि मूड बनाने पर वो अपने घर से ही शुरु हो जाते थे। जिस पार्टी में शरीक होने के लिए वो मई गिलास पहुंचे और जिसका गवाह मैं खुद रहा -वो ये बताने के लिए काफी है कि ऋषि कपूर किस सोच के इंसान थे और कितने जिंदादिल थे। दोहरा चरित्र या हिप्पोक्रेसी से उन्हें सख्त नफ़रत थी। ऋषि कपूर जिन्हें फ़िल्म इंडस्ट्री चिंटू जी के नाम से पुकारती थी, खाने-खिलाने के बेहद शौक़ीन रहे। वो यारों के यार थे और खुलकर जीने में यकीन रखते थे। शायद यही वजह थी कि जो उनके करीब गया वो मुस्कुराता हुआ ही लौटा।

राजकपूर रात को जलाते थे एक ख़ास अगरबत्ती 

ऋषि कपूर ने अपनी ऑटोबायोग्राफी में एक जगह बताया है कि उनके पिता राज कपूर एक खास तरह की अगरबत्ती रात में जलाया करते थे जिससे नींद अच्छी आती है, उनका मानना था कि नींद अच्छी आएगी तो सपने अच्छे देखोगे और सपने अच्छे होंगे तो फिर पूरे भी होनेग।ऐसी तमाम छोटी-छोटी बातों का जिक्र उन्होंने अपनी किताब खुल्लम-खुल्ला में किया है जो ना सिर्फ हमें यह बताती हैं कि आप जो हैं उसे स्वीकार करें - क्योंकि आप अपने आप में अलग हैं।  यूनीक हैं और आपमें जो खासियत है वह यही है कि ऊपर वाले ने आपको सबसे अलग बनाया है। दरअसल आज जरूरत हमें यही सीखने की है कि हम किसी बनावटीपन में ना उलझे बल्कि सीधे और सरल बने।  मतलब जैसा सोचे जैसा समझे वैसा ही बोले भी। ऋषि कपूर ने अपनी किताब में साफ लिखा है कि वह खुद को लकी मानते थे कि उनका जन्म कपूर परिवार में हुआ, उन्होंने उस पुराने से छोटे घर का जिक्र भी किया है जो मुंबई के माटुंगा इलाके में था और जहां अक्सर लोगों का मेला लगा रहता था। आने जाने वाले लोगों में महान फिल्मकार के आसिफ जैसे लोग भी शामिल थे। ऋषि कपूर ने लिखा है कि भारतीय सिनेमा को करीब 100 साल से ज्यादा का वक्त हो चुका है जिसमें से करीब 90 साल कपूर परिवार ने फिल्म उद्योग की सेवा की है।

गुरुदेव टैगोर ने दिलवाई थी दादा को पहली फ़िल्म 

बहुत कम लोग जानते हैं कि थिएटर के दिनों में ऋषि कपूर के दादाजी यानी पृथ्वीराज कपूर ने दुर्गा खोटे के साथ 'सीता' नाम का एक थिएटर किया था, जिसमें वह राम बने थे और इस थिएटर को देखने खुद रविंद्र नाथ टैगोर आए थे। टैगोर वह पृथ्वीराज कपूर की प्रतिभा से काफी प्रभावित हुए थे,इसके बाद रविंद्र नाथ टैगोर की सिफारिश पर ही उनके दोस्त बीएन सरकार ने 'सीता' फिल्म बनाई और इसमें पृथ्वीराज कपूर को कास्ट किया गया। यह फिल्म एक बहुत बड़ी ब्लॉकबस्टर बनी और कपूर खानदान की शुरुआत भारतीय फिल्म उद्योग में इसी फ़िल्म के ज़रिये हुई। कम लोग जानते हैं कि पृथ्वीराज कपूर वह पहले कलाकार थे जिन्होंने ब्लैक मनी लेने से इनकार कर दिया था, उनका कहना था कि कला के बदले मिलने वाला मेहनताना ब्लैक मनी का नहीं हो सकता। अपनी किताब में ऋषि कपूर ने अपने दादा की इन बातों को जिस प्रमुखता से उकेरा है वो साबित करता है कि ऋषि कपूर स्वयं इस बेबाकी और पवित्रता के प्रतीक थे। मुझे लगता है कि ऋषि कपूर के व्यक्तित्व में बेबाकी और साफगोई उनके दादाजी के गुणों की ही दें थी।

जब एक सीन के लिए खाने पड़े थे नौ थप्पड़ 

ऋषि कपूर ने 'खुल्लम खुल्ला' में बताया है कि वह जब सेट पर अपने पापा से मिलने जाते थे तो उनके मेकअप के साथ खेलने लगते, ऋषि कपूर के चाचा शशि कपूर को पहले से ही अंदाजा था कि उनका यह भतीजा एक ना एक दिन फिल्मों में बड़ा कलाकार जरूर बनेगा। ज़ाहिर है ऋषि कपूर को बचपन से ही फिल्मी माहौल मिला राज कपूर और पृथ्वीराज कपूर जैसे दिग्गजों का साथ मिला। वहीं  घर में आने-जाने वाले सभी लोग फिल्म से जुड़े होते थे इसलिए उन्होंने खुद से हमेशा यही उम्मीद रखी कि वो खुद भी फिल्म इंडस्ट्री का ही हिस्सा बनेंगे। फिल्म 'मेरा नाम जोकर' से जुड़ा एक मजेदार किस्सा यह है इसमें एक सीन है जिसमें ऋषि कपूर को अपनी मां से थप्पड़ खाना है, असल में ऋषि कपूर को 9 बार उस सीन के रीटेक देने पड़े थे और हर बार उन्हें अपने गाल पर जोर का तमाचा सहना पड़ा। पापा राज कपूर ने उस सीन को तब तक रीटेक करवाया जब तक कि वह संतुष्ट नहीं हो गए। ऋषि कपूर ने लिखा है कि एक कलाकार के तौर पर यही सबसे बड़ी सीख थी कि जब तक परफेक्शन ना आ जाए सीन को फाइनल नहीं करना है।

'बॉबी' की सफलता ने दिमाग खराब कर दिया था 

अपनी पहली हिट फ़िल्म 'बॉबी' को मिली कामयाबी याद करते हुए ऋषि कपूर ने लिखा है कि 20 साल की उम्र में मिली कामयाबी ने मेरा दिमाग खराब कर दिया था, और जैसे ही उसके बाद मेरी अगली फिल्म 'जहरीला इंसान' फ्लॉप हुई मेरा सारा बुखार उतर गया, अगर आप ऋषि कपूर की लिखी इस किताब को पढ़ेंगे तो उनका व्यक्तित्व शीशे की तरह साफ दिखाई देगा। और आप इस बात से बिलकुल मुतमईन हो जाएंगे कि ऋषि कपूर कि ज़िन्दगी का फलसफा उनकी ज़िन्दगी में शीशे की तरह साफ था। और वो ये कि ज़िंदगी में बनावट नहीं रखनी चाहिए। जितना जियो खुलकर जियो और ऋषि कपूर ने आखिर तक ऐसी ही किंग साइज़ लाइफ जीकर दुनिया को अलविदा कहा।