Wednesday 7 November 2012

पेशेवर चोर को भी ज़मानत - ये कैसा कानून?

देश को सबसे ज्यादा टैक्स देने वाले और सबसे घनी आबादी वाले शहर मुंबई में 15 दिन पहले एक चोर एक फिल्म स्टार के घर चोरी करने के बाद कुछ ही घंटो में चोरी के माल समेत पकड़ा जाता है- पुलिस उसे ज़मानत पर छोड़ देती है- यही चोर इस चोरी के 15 दिनो के बाद शहर के सबसे पॉश इलाके (पेरी क्रास रोड बान्द्रा) मे एक स्पेनिश महिला के घर मे घुसकर उसके साथ दो बार बलात्कार करता है और घर का सामान लूट कर फरार हो जाता है।

यह घटना देश मे महिलाओ के लिये सबसे सुरक्षित माने जाने वाले शहर मुंबई में होती है जिस शहर की पुलिस की तुलना आप दुनिया की सबसे तेज पुलिस Scotland yard से करते है। जिस इलाके में ये घटना हुई वंहा दुनिया के सबसे अच्छे क्रिकेटर सचिन तेन्दुलकर का भी घर है। यंहा चोरी और बलात्कार की वारदात को अंजाम देने वाला एक ही शख्स है और बाकी सारी बाते मैने इसलिये गिनाई है जिससे सारे पहलुओ की सच्चाई सामने आ सके-

अब इस घटना से कुछ सवाल खड़े होते है

1- जो चोर पकड़ा गया वो पेशेवर चोर है पहले भी आर्थर रोड जेल मे 5 महीने की कैद की सजा काट चुका है- उसे ज़मानत कैसे और क्यो मिली क्या हमारे देश का कानून पेशेवर चोर को भी ज़मानत देता है


2- एक चोर को ज़मानत मिली और दूसरे ही हफ्ते उसने चोरी के साथ बलात्कार भी किया- इतना ही नही उसने विदेशी महिला के साथ ये हरकत की जिससे विश्व पटल पर दुनिया के सामने हमारे कानून की खामी उजागर हो गई


3- ये हादसा उस जगह हुआ जंहा VIP रहते है- ऐसा माना जाता है कि उस जगह की सुरक्षा व्यवस्था कड़ी होनी चाहिये- साथ ही ये शहर देश को सबसे ज्यादा टैक्स देता है- ऐसे मे ये गलती माफी के काबिल नही


4- पुलिस से ज्यादा कानून की कमजोरी बाहर निकल कर सामने आई है- ज़रा सोचिये उस देश मे कसाब जैसे आतंकी क्यो नहीं घुसेंगे- शरद पवार और गडकरी क्यो नही पनपेगे जिस देश का कानून पेशेवर चोर को भी ज़मानत दे देता हो। 


हैरानी की बात है कि कोई देश किसी पेशेवर गुनाहगार को कैसे ज़मानत दे सकता है जिसकी आमदनी का जरिया गुनाह करना हो क्यो वो किसी ज़मानत की परवाह कर सकता है क्या- ये बात मेरी समझ से परे है।



इस खबर का लिंक      http://timesofindia.indiatimes.com/city/mumbai/Burglar-who-raped-Spaniard-was-out-on-bail-is-arrested/articleshow/17124274.cms

Thursday 25 October 2012

और फिर एक डोर खिंच गई...

चार दिन पहले यश चोपड़ा जी के निधन के बाद मैने मौत का reminder नाम से पोस्ट लिखी थी और अब जसपाल भट्टी की हादसे मे मौत के साथ आज सुबह की शुरूआत हुई। ईश्वर को भी लगता है किसी नेता से इतना प्यार नहीं जितना कलाकारो से है। जसपाल भट्टी के निधन के साथ फिर से उस supreme power ने हमे एहसास दिलाने की कोशिश की है कि जिन्दगी कभी भी हमसे छिन सकती है- इसलिये जी भर कर जियो और छोटी छोटी बातो पर अपना दिल छोटा ना करो।

दूसरे को नीचा दिखा कर जो खुशी मिलती है वो कितनी झूठी होती है- दूसरो को दुख देकर जो सुख मिलता है वो कितना खोखला होता है ये वो सारी बाते है जिनके बारे मे अलग अलग धर्मो के गुरू हमे सीख देते आये है लेकिन सब बेकार जाता है।  हमे असली समझ तभी आती है जब कोई हमारा करीबी य़ा जिसे हम जानते पसंद करते हों उसकी जान जाये। हम झूठी मान प्रतिष्ठा के पीछे भागते रहते है और एक दिन ऊपर वाला आपकी डोर खींच देता है फिर क्या.... सब धरा रह जाता है यहीं.... फिर याद आता है गीता का ज्ञान- पहले तो भागते रहते है सब कुछ भूल कर लेकिन अगर पहले ही ख्याल रखे तो शायद किसी को अफसोस ही ना हो।

हर पल आखिरी हो सकता है हर मुलाकात आखिरी हो सकती है इसलिये हर काम यादगार रह जाये ऐसा करो क्योकि ना जाने फिर कल हो ना हो..

Monday 22 October 2012

मौत का reminder

यश चोपड़ा की मौत से पूरे बॉलीवुड मे मायूसी छाई है।  मुंबई मे आज धूप नही निकली लेकिन उदासी और मायूसी के माहौल में यंहा एक बात समझनी जरूरी है कि किसी की भी मौत की खबर असल मे ऊपर वाले (supreme power) की तरफ से भेजे गये reminder की तरह होती है कि जिस तरह इस व्यक्ति की मौत हो गई उसी तरह कल आपके, मेरे और सबके साथ ऐसा हो सकता है।

सबसे ज्यादा अफसोस ये सोचकर होता है कि हम रोजाना ये सोचकर जीते है मानो कभी मरेगे ही नही- छोटे छोटे झगड़ो मे उलझे रहते है- दूसरो को नीचा दिखा कर खुद को अव्वल बताना- किसी के खुश होने पर उससे ईर्ष्या करना- और कभी न पटने वाले अपने इच्छाओ के कुएं को भरने मे लगे रहते है बिना एक भी पल जिये। तभी किसी करीबी की मौत का समाचार  कुछ पलो के लिये हमे मौत का  reminder देता है हम थोडी देर के लिये सोचते है दुखी होते है और अगले दिन से फिर वही घास काटने मे लग जाते है। 

अगर रोजाना हम सुबह उठकर ये सोच कर जिये कि ये दिन मेरा आखिरी दिन भी हो सकता है तो ना सिर्फ हम  उस दिन को पूरी तरह से जी पायेगे बल्कि मौत का डर जो बेवजह हमे सताता है नही सतायेगा। कुछ लोग मेरे विचारो को नकारात्मक सोच भी कह सकते है पर मेरे पास इस बात का पूरा तर्क है कि जो निश्चित है उससे डर कर भागना या ये मानना कि ऐसा नही होगा सबसे बड़ी मूर्खता है। जीवन मे इस बात का हर पल ख्याल रखना कि ये हमारा आखिरी पल हो सकता है- ये सोच न सिर्फ हमे बुरे कर्मो से दूर रखेगी बल्कि सद कर्मो के लिये प्रेरित भी करेगी।

अगर यही सोच मानकर हमारे राजनेता चलेगे तो घोटाले किस के लिये करेगे - क्योकि एक दिन तो सबको जाना है अगर आप अपने बच्चो के लिये खजाना भर रहे है तो ये भी सोचिये कि वो भी एक दिन मरने वाले है। जब इस दुनिया मे कुछ भी स्थाई नही है तो इतनी हाय माया क्यो..

मै क्यो कुछ दिन की खुशी के लिये अपने मन पर वो बोझ लूं जो मुझे चैन से मरने भी ना दे। जब मेरी मौत परम सत्य है जब अपने सभी करीबी लोगो और पसंदीदा चीजो से एक दिन बिछुड़ना ही है तो मै वो मोह क्यो पालूं और सबसे बड़ी बात मैं खुद को धोखे मे क्यो रखू..? कम से कम मै खुद से तो सच बोल ही सकता हूं..मुझे विश्वास है कि दुनिया का हर बुरा काम करते वक्त उस काम को करने वाले व्यक्ति को अपनी मौत और जिंदंगी के अस्थाई होने का ज्ञान नही होता- (यंहा मै फिदायीन आतंकियो की बात नही कर रहा हू उन्हे तो उनके धर्म गुरू ही गड्ढे मे धकेल देते है कि जा बेटा धर्म के नाम पर जान दे दे- अरे धर्म के नाम पर क्यो दू जान जब धर्म के नाम अपनी जिंदगी बिता सकता हू तो क्यो जाऊं मरने- इसके लिये अलग से पोस्ट लिखूंगा)

अपने असल मुद्दे पर लौटता हूं - मै क्यो एक temporary life के लिये परम सत्य को भूला रहू मै तो रोज उसे याद रखता हू और चाहता हू कि सुबह उठकर सबको इस दुनिया मे यही ख्याल आये कि वो आज मर सकते है- यकीन मानिये जिस दिन ऐसा हुआ अपराध की फाइले नही बनेगी कोई मुकदमे या हमले नही होगे। मुझे ये पता है कि मै कुछ दिनो के लिये हू तो मै मानकर चलुगा कि मै ऐसा कोई काम ना करू जिससे मुझे या किसी और को कोई तकलीफ हो- मेरी मानिये अपने मोबाइल पर मौत के reminder लगा लीजिये- आपको कभी किसी और की या फिर अपनी मौत से डर भी नही लगेगा और आप गलत काम करने से भी बचे रहेगे- बाकी आपकी मर्जी। 


Sunday 21 October 2012

आदत बदलनी है तो माहौल बदलें

बचपन मे मेरे पड़ोसी रहे गुप्ता अंकल कभी शराब नही पीते थे लेकिन होली के दिन ना जाने सुबह से उन्हे क्या हो जाता था वो सुबह से ही भंग चढाने के लिये तैयार हो जाते थे। अगले दिन सुबह से फिर वही कभी शराब न पीने की बात करना। होली के दिन यकीन करना मुश्किल होता था कि ये वही गुप्ता जी है जो साल के बाकी के दिन नशा न करने की हिदायते देते रहते है। एक दिन जब मै थोड़ा बड़ा हुआ तो होली के अगले दिन मैने बड़ी हिम्मत करके उनसे ये सवाल किया कि गुप्ता जी ये होली के दिन आप कैसे भंग पीने लग जाते है जबकि साल के बाकी के दिनो मे आप नशे से कोसो दूर रहते है तो मेरी इस बात का जवाब जो उन्होने दिया वो काफी चौकाने वाला था - वो बोले बेटा उस दिन तो माहौल ही ऐसा होता है  तो कुछ समझे आप ये माहौल है जो किसी को भी बदलने के लिये काफी होता है।

वो माहौल ही है जो सड़क पर थूकने वाले लोगो को किसी साफ सुथरे मॉल में थूकने से रोकता है। तो क्या देश की सड़को पर फैली गंदगी के लिये माहौल को जिम्मेदार माना जा सकता है तो जवाब मिलेगा एक हद तक- मेरे कई ऐसे मित्र  है जो जब हिन्दुस्तान मे होते है तो बडे बेढंगे ढंग से बात करते है- सड़क पर पास पड़ोस मे गंदगी भी फैला देते है लेकिन जैसे ही ये किसी पश्चिमी देश की यात्रा पर जाते है तो इनका बात करने का ढंग- साफ सफाई रखने का तरीका- देखकर यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि ये वही है जो अपने घर पर अपने देश मे गंदगी फैलाते रहते है- इनसे भी अगर पूछ लो तो जवाब मिलेगा- "यार वंहा का माहौल ही ऐसा है कि हमे थोड़ा संभल कर साफ सफाई से रहना पडता है" समझे आप फिर माहौल की बात- तो अगर मेरे दोस्त माहौल इतना अहम रोल अदा करता है कि आप अपनी आदतो को माहौल के हिसाब से बदल पाते है। गौर कीजियेगा यंहा मैं माहौल के उस गुण  की बात कर रहा हूँ जो आपकी आदत को भी बदलवाने  की ताकत रखता है (आदतो के बारे मे कहा जाता है कि जो बदली नही जा सकती वही आदत होती है) तो कितनी ताकत होती है इस माहौल मे।

अगर माहौल के बारे मे ऊपर लिखे गये तर्क ठीक है तो फिर ये भी जान लेना जरूरी है कि माहौल बना कर किसी भी बुराई से निजात पाई जा सकती है क्योकि बुराईया हमारी आदतो मे ही तो होती है फिर चाहे देर तक सोने की आदत हो, नशा करने की आदत हो, कामचोरी की आदत हो, झूठ बोलने की आदत है, भ्रष्ट होने की आदत हो ये सब आदते ही तो हमारे देश का बेड़ा गर्क कर रही है- मतलब अगर माहौल बदल दिया जाये तो ये सब बुराईया दूर भगाई जा सकती है।

देश मे अन्ना के आंदोलन ने,  अरविंद केजरी वाल के खुलासो ने या फिर बाबा रामदेव के योग ने क्या किया माहौल ही तो बनाया और देखिये माहौल ने कैसे अपना असर भी दिखाया। भले छोटे स्तर से हुआ हो लेकिन लोग लोकपाल बिल के बारे मे जानने लगे ,बात करने लगे, अनुलोम विलोम, कपाल भांति और प्राणायाम घर घर मे बोले जाने वाले शब्द बन गये लोग इनके बारे मे जानने लगे। विज्ञापनो की दुनिया (ad world) भी अपना प्रोडक्ट बेचने के लिये क्या करती है माहौल ही तो बनाती है जैसा प्रोडक्ट वैसा माहौल- "जो अपनी बीवी से करते है प्यार वो प्रैस्टीज कुकर से कैसे करे इंकार" मानो रेडियो टी वी पर बार बार इस बात का प्रचार किया जा रहा हो- माहौल बनाया जा रहा हो कि दुनिया का हर वो पति बेकार है जिसके घर प्रैस्टिज का कुकर नही है- ये सब एक माहौल बनाने की प्रक्रिया का ही हिस्सा है। नवरात्र मे लोग मांस खाना छोड देते है क्योकि ऐसा माहौल बना दिया जाता है।


तो अगली बार अगर आप किसी भी बुराई से निजात पाना चाहे, कोई आदत बदलना चाहे तो बस आपको इतना करना है कि माहौल बनाना है।

नयी पीढी नया खतरा- जरूरी है जानना

सरकार ने अपने नये कंपनी बिल मे कहा है कि देश मे बडा  मुनाफा कमाने वाली कंपनी  अपनी कमाई के दो फीसदी हिस्से को corporate social responsibility के तौर पर खर्च करे । इस नये नियम के तहत एक कंपनी ने चेन्नई मे एक workshop आयोजित करके बच्चो को समझाया कि rain water harvesting कैसे होती है और इसके क्या फायदे होते है।  मुझे ये सरकारी कदम वाकई सराहनीय लगा। आज बच्चो को पढाई के साथ साथ हर उन बातो का ज्ञान देने की जरूरत है जो बदलते वक्त के साथ उनके सामने चुनौतियो के रूप मे सामने आने वाली है। अगर हमारी पिछली दो पीढियो को  rain water harvesting या global warming noise pollution और waste management जैसी प्रणालियो के बारे मे जानकारी दी जाती तो आज हालात और होते लेकिन बदलते वक्त की वजह से नये पैदा होते इन खतरो से कैसे निबटना है ये हमारी नयी पीढी को तो कम से कम जरूर पता होना चाहिये। आज की पीढी इन सारे खतरो को ज्यादा करीब से देखने वाली है क्योकि ये नई पीढी कई सारे नये खतरो के साथ अपनी जिन्दगी शुरू कर रही है यंहा पर मै उन बच्चो की बात कर रहा हू जो अभी स्कूलो मे पढ रहे है।


पहला खतरा है सैलफोन को इस्तेमाल से होने वाले नये मानसिक रोगो को खतरा जिसके बारे मे पिछली पीढी को जानने की जरूरत नही थी क्योकि तब सैल फोन नही होते थे। दूसरा मुद्दा है global warming का जिसके बारे मे पिछली पीढी मे कोई जागरूकता नही थी और आजादी के बाद विकास के नाम पर कई जंगल स्वाहा किये गये और नतीजा ये कि आज देश के किसी भी हिस्से का मौसम कोई भी करवट ले लेता है साथ ही शहरी तापमान भी तेजी से बढ रहा है। तीसरा नया खतरा है  waste management का आज देश की जनसंख्या तेजी से बढने के बाद ( जिसमे illegal migrants Bangladeshi, Pakistani and Nepali शामिल है) कचरे की मात्रा २० गुने से भी ज्यादा बढी है यह भी एक नया खतरा है ऐसे मे waste management  के बारे मे बच्चो को बताना जरूरी है। चौथा नया खतरा ध्वनि प्रदूषण का है हमे अपने बच्चो को बताना होगा कि शान्ति की हमारे जीवन मे क्या अहमियत है। शान्ति न केवल हमारे मानसिक स्वास्थय के लिये आवश्यक है बल्कि हमारे शरीर को ऊर्जावान बनाये रखने और किसी भी काम मे एकाग्रचित होने के लिये सबसे ज्यादा जरूरी है।

पांचवा खतरा जो नया नही है लेकिन हाल के कुछ सालो मे तेजी से बढा है वो है वायु प्रदूषण का जिसकी वजह है सड़को पर तेजी से बढने वाली कारे, स्कूटर और मोटर साइकल। शायद अब वक्त आ गया है जब कि हमे बच्चो को ये कहना होगा कि बचपन मे स्कूल जाने के लिये दी गई साइकिले अब उन्हे बड़े होने के बाद भी इस्तेमाल करनी चाहिये और पैट्रोल डीजल से चलने वाली गाडियो से दूर ही रहना चाहिये तभी वो अपनी संास लेने लायक वातावरण रख पायेगे।

खतरे और भी है लेकिन एक खतरा जो सबसे पुराना है जिस पर हमारी पिछली ४ पीढिया बिल्कुल ध्यान नही दे पाई और जो सारे खतरो की जड़ है वो है जनसंख्या का तेजी से बढना। अगर हम अपनी जनसंख्या पर काबू कर पाते जो सिर्फ और सिर्फ हमारे ही हाथ मे था तो ऊपर लिखे कई खतरो का स्तर या तो काफी कम होता या फिर ना के बराबर होता। अफसोस की बात है कि तीस से साठ के दशक के बीच हुई हिन्दुस्तान की ज्यादातर शादिया मानो सिर्फ बच्चे पैदा करने के लिये ही की गई । उन दिनो हर घर मे तीन से लेकर १२ बच्चे तक होते थे नतीजा ये कि आज देश की ट्रेन मे सीट , बस मे खड़े होने की जगह , फुटपाथ पर पांव रखने की जगह, स्कूल मे दाखिला, शहर मे रहने को घर और अस्पतालो मे बिस्तर नही मिलते। ऐसे मे वृद्ध लोगो से ये सुनना कि हमारे जमाने मे ऐसा नही था जले पर नमक छिड़कने का काम करता है क्योकि अगर उस पीढी ने जनसंख्या पर काबू पाया होता और क्रिकेट टीम की तरह बच्चे पैदा न किये होते तो आज ये स्थिति नही होती।

खैर जो हुआ सो हुआ लेकिन अब जो हमारे हाथ मे है वो ये कि हम अपनी अगली पीढी को नये युग के इन नये खतरो से निबटने के लिये जागरूक जरूर करे- ऐसे मे कुछ corporate companies का workshop लगाकर social responsibility पूरा करना एक अच्छा कदम है और इस तरह की शुरूआत हम अपने पास पड़ोस और बिल्डिग के बच्चो को किसी छुट्टी के दिन साथ बैठाकर भी कर सकते है। हम उन्हे खेल खेल मे इन सारी बातो के बारे मे बता सकते है। ये नयी सीख उनके आने वाले कल के लिये काफी मददगार साबित होगी और अगर हम ये ना कर पाये तो हमारी हार होगी। नये खतरो से निबटने के लिये नयी पीढी को तैयार करना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है और जिम्मेदारी से भागना कायरो का काम है। 

Friday 19 October 2012

बच्चो को सिखाये तर्क करना - रटना नहीं

आज सुबह मैने अपने पड़ोसी को देखा कि वो अपने 10 साल के बच्चे को अंग्रेजी मे कुछ रटा रही थी- उनकी भाषा सुनकर एहसास हो गया कि अग्रेजी से इनका दूर का नाता ही रहा है ऐसे मे बच्चा भी बस उनके मुंह से निकले कुछ शब्दो को सिर्फ दोहरा रहा था समझ उसके भी कुछ नही आ रहा था ठीक मेरी तरह- इतनी देर मे उनकी लिफ्ट आ गई और वो दोनो माँ बेटे मेरी नजरो से ओझल हो गये लेकिन मै सोचता रह गया कि अगर इस बच्चे ने अग्रेजी मे बोली गई इन लाइनो को रट कर अपनी परीक्षा मे इसे लिख  दिया तो क्या बच्चे को स्कूल भेजने का असली मकसद पूरा हो पायेगा। क्या ये बच्चा उन बातो उन तर्को को  समझ पायेगा जिन पर हम या हमारे आस पास की वस्तुए चल रही है। क्या सिर्फ रटन्त विद्या हमारे आने वाले कल के लिये खतरनाक नही है।

इस बच्चे की तरह की पढने वाले बच्चे जब कल किसी के माँ बाप बनेगे तो वो उनको क्या देगे और अगर आज हम इन बच्चो को मिलने वाली शिक्षा के स्तर और तरीके को बदल नही पाये तो क्या हम बडे होने की या तजुर्बेकार होने की अपनी नैतिक जिम्मेदारी को निभा रहे है। क्या हम सब की कोई जिम्मेदारी नही बनती कि हमारे आस पास जो गलत हो रहा हो उसे बदले। अगर आप मुझसे पूछे कि आस पास जो चीज़ धडल्ले से गलत हो रही है वो क्या है तो मेरी जुबान पर सबसे पहला नाम सबसे पहला गुनाहगार होगी हमारी शिक्षा व्यवस्था जो हमारे आज और कल ही नही बल्कि आने वाली कई पीढियो का नुकसान करती चली जा रही है और हम चुपचाप देख रहे है।

 मेरे आस पास कई लोग है जो मानते है कि हमारा school system बदल देना चाहिये लेकिन बदलाव करने से पहले  इसकी कमिया जाननी जरूरी है- सबसे बडी बात जो मेरी समझ से बाहर है कि हमने शिक्षा को इतना मंहगा क्यो बना दिया है और अगर मंहगा बनाने मे मेहनत की है तो फिर उसे practical बनाना क्यो भूल गये है। सिर्फ Right to education का कानून लाने से कुछ नही होगा education को रटन्त ज्ञान से अलग करना सबसे ज्यादा जरूरी है।  हम खुश होते है कि हमारे बच्चे को फलां फलां कहानी या कविता याद है वो calculation कर लेता है definitions लिख देता है लेकिन इतना कर लेने के बावजूद भी अगर उस बच्चे को practical ज्ञान नही है तो हमने उसकी आँखो पर पट्टी बांध रखी है हम उसे शाबाशी दे देते है कि उसने जितना रटा था वो सब लिख कर आ गया और उसके नंबर भी अच्छे आ गये लेकिन क्या जो वो रट रहा है वो उसको समझ आया जवाब मिलेगा पता नही- और ये पता नही वाला जवाब आपके उस बच्चे को मीठे जहर की तरह मार रहा है जिसका एहसास आपको नही है।

आपके बच्चे के टीचर को लगता है कि अगर वो इस सवाल का जवाब ये लिख देगा तो उसे पूरे नंबर मिलेगे लेकिन बच्चे को किसी सवाल का सही जवाब पता होने से ज्यादा जरूरी ये है कि उसे ये पता हो कि उसी सवाल के कितने जवाब हो सकते है जो गलत है और किस वजह से गलत है। अक्सर हम ये तो बता देते है कि सही क्या है लेकिन ये नही बताते कि गलत- क्यो गलत है और सही क्यो सही है और अगर गलत को सही कहा जाये तो क्या नुकसान हो सकते है इसीलिये हम अधूरा ज्ञान बांटते है।

अधूरा ज्ञान इसलिये भी खतरनाक हो सकता है क्योकि यह एक गलतफहमी देता है। जिस बच्चे को आपने कुछ रटा दिया उसे रटा हुई ज्ञान लिख कर नंबर मिल गये और उसे इस बात की गलतफहमी हो गई कि मुझे सब पता है बस यही गलतफहमी उसके लिये नुकसान दायक  है। मसलन अगर हमे कुछ जानने का भ्रम हो जाये तो हम निश्चिन्त होने लगते है कि जिस तरह का ज्ञान हमे मिला है उसे ही तो ज्ञान कहते है- (बच्चे के सन्दर्भ मे लिख रहा हूँ) मतलब कितना आसान है रटना है ऐसा बच्चो को लगता है पर उन्हे ये पता नही कि रटने से आसान है समझना तभी आसान होता है जब आप थोड़ा सा दिमाग लगाने मे यकीन रखते हो- जानने की चाह रखते हो लेकिन अगर आपको सिर्फ रटा कर पास करने का दूसरा रास्ता दिखा दिया गया है तो शायद यंहा मै जो लिख रहा हूँ वो उन बच्चो के माँ बाप को समझ नही आयेगा।

मुझे लगता है हम सबने अपनी आँखे बन्द करके बच्चो की पढाई को गंभीरता से लेना छोड़ दिया है। हमारा पूरा ध्यान सिर्फ बच्चो को किसी तरह अच्छे नंबर से पास करवा कर किसी नौकरी या competition के लिये तैयार करना भर रह गया है। हम पूरी तरह से ये मान चुके है कि किसी तरह ज्यादा नंबरो वाला certificate लेना कामयाब जिन्दगी की गारंटी लेकर आता है लेकिन अगर ऐसा होता तो देश मे डिग्री वाले तथाकथित योग्य (काबिल) लोग बेरोजगार ना घूम रहे होते। हमारी शिक्षा पद्धति की सबसे बड़ी खामी है कि ये आपको किसी का नौकर बनने लायक ही तालीम देती है- आप स्वयं का कोई काम किसी नये सिरे से शुरू कर पाये- या फिर आप अपनी किसी प्रतिभा का विकास करके उसे अपना पेशा बना पाये इस तरह की व्यवस्था ना के बराबर है।

फिलहाल देश की सरकार शिक्षा व्यवस्था को लेकर क्या करती है उससे पहले  कम से कम हम इतना तो कर ही सकते है कि अपनी तरफ से जो गलतिया हो रही है उन्हे ना होने दे। जरूरी है कि हम अपने बच्चो के अंदर गलत आदते परपने ही ना दे जैसे रटने की आदत, किसी तरह (चाहे नकल करके) ज्यादा नंबर लाने की मानसिकता या फिर किसी भी बात को सिर्फ book मे लिखा है कहकर मान जाने की आदतो को जरूर बदला जा सकता है। हमे बच्चो के अंदर तर्क करने की ललक पैदा करनी होगी और इस बात को बढावा देना होगा कि वो किसी भी बात को सिर्फ बिना किसी logic लगाये ना मान ले। इससे ना सिर्फ उन्हे अपने किसी भी विषय की पूरी जानकारी होगी बल्कि इस बात की पूरी समझ हो जायेगी कि इस संसार मे बिना तर्क के कुछ भी नही होता।

इतिहास गवाह है कि इतिहास मे अमर वही हुए है जिन्होने हर पहलू पर अपना तर्क लगाया है।  दूसरो की कही सुनी पर आँख कान बन्द करके मान लेने की आदत आपसे कभी कुछ नया नही करवा सकती- याद रहे इस दुनिया मे आने के पीछे हम सबका कोई ना कोई मकसद है ।  इस मकसद को आप अपनी कोशिशो से हासिल किये गये तर्क संगत ज्ञान से ही पूरा कर सकते है इसलिये तर्क लगाने की आदत अपने बच्चो मे डालिये।

Thursday 2 February 2012

सच है

रामकृष्ण परमहंस ने कहा है कि भगवान दो बार हंसते है पहली बार जब डाक्टर ये कहता है - मुझे लगता है मै इस मरीज को बचा लुंगा- और दूसरी बार तब जब दो भाइयो के झगड़े मे एक भाई जमीन पर दीवार खड़ी करके कहता है ये हिस्सा आज से हमेशा के लिये मेरा हुआ- असल मे ये दोनो बाते कहने वाले की अज्ञानता की तरफ इशारा करती है- क्योकि इस अस्थाई दुनिया मे न तो कभी कोई हमेशा के लिये किसी भी वस्तु का मालिक बनता है और ना ही किसी इंसान मे किसी दूसरे इंसान को बचाने की ताकत होती है-
हम सब अपने अपने हिस्से का श्रम भर करते है इसीलिये गीता मे कहा गया है परिश्रम करो फल की चिन्ता मत करो क्योकि फल की चिन्ता श्रम मे बाधक बन जाती है - फल किसी भी इंसान के हाथ मे नही है इसलिये उसकी चिन्ता व्यर्थ है इंसान के हाथ मे कर्म करना है तो सिर्फ वो कर्म ही करे-जितनी जल्दी हमे इस बात का आभास हो जाये कि हम कितने अज्ञानी है और इसका कारण क्या है उतनी जल्दी ही हम उसे दूर कर पायेगे- तो अगली बार ऊपर लिखी दोनो बाते अगर किसी को बोलते सुनो तो उस पर यकीन करके सुखी या दुखी मत होना।