Monday 29 September 2008

अच्छे होने का हक

अरे नहीं, ये तो इंडिया हो ही नहीं सकता... कुछ यही शब्द मेरे मुंह से उस वक्त निकले जब मैं डिस्कवरी पर इंडिया के ईस्टर्न स्टेट्स पर बनी एक डॉक्यूमैंट्री देख रहा था- अब इसे यशराज की फिल्मो का असर कहे या हमारी गुलाम मानसिकता- कोई भी अच्छी सीनरी हमें भारतीय नहीं लगती।
सालो साल से ये बात हमारे भीतर घर कर चुकी है कि जो भी अच्छा है वो इंडिया का नहीं हो सकता और ये बात कोई पूरी तरह गलत भी नहीं है लेकिन हद इस बात की है कि अगर सौ में नब्बे चीजे खराब हैं भी तो बाकी बची दस चीजो के अच्छे होने का हक हम खुद ही उनसे छीन लेते है।
कुछ ऐसा ही इस देश के मुसलमानो के साथ होने लगा है- देश के करोड़ो मुसलमानो में से एक अब्दुल हमीद को तो हमने भुला दिया है जो पाकिस्तान के खिलाफ जंग में देश पर शहीद होकर अपना नाम रोशन कर गये अब हमे याद है वो सारे टैरेरिस्ट जो कभी मजहब के नाम पर तो कभी काश्मीर के नाम पर आतंक फैलाते रहते है- और इस चक्की में पिसते हैं वो जो बेचारे वाकई शरीफ मुसलमान हैं और एक जिम्मेदार नागरिक भी।
मुसलमानो के लिए हमारे बदलते रवैये ने बाकी बचे शरीफ मुसलमानो के आत्मविश्वास को भी बुरी तरह चोट पहंचाई है- किसी को बार बार चोर कहकर शायद हम ही उसे कहीं न कहीं चोरी करने को उकसाते हैं।
यही बात मुझे २९ सिंतबर के हिंदुस्तान टाइम्स की हैडलाइन ब्लैकलिस्टेड देखने के बाद महसूस हुई- जिसमें कहा गया है कि जब से दक्षिण दिल्ली के महरौली इलाके मे टिफिन बम ब्लास्ट हुआ है उस इलाके के आसपास जाकिर नगर, गफ्फार मार्केट और अबु फजल एन्कलेव में रहने वाले मुसलमानो से नये इंटरनैट कनेक्शन लेने, पिज़ा की होम डिलीवरी लेने जैसे कई हक मानो जबरन ही छीन लिये गये है- माना कि देश में होने वाले ज्यादातर टैरेरिस्ट अटैक मुस्लिम धर्म के नाम पर किये जाते है लेकिन सिर्फ ये बात बार बार कहकर आप सारे मुसलमानो को गाली तो नहीं दे सकते- ये तो 'करे कोई भरे कोई' वाली बात हुई- हाँ गुस्सा करना जायज है लेकिन कोई किसी को इस तरह से धर्म के नाम पर बेइज्जत करे ये तो किसी धर्म में नहीं सिखाया गया।
ये इस देश में मुस्लिम होने का ही खौफ है कि मेरे कई मुस्लिम दोस्त ऐसे हैं जिनके घरवालो ने उनके पहले नाम ऐसे रखे हैं जिससे उनके हिंदु होने का एहसास हो- ये ठीक वैसा है जैसा कि कभी काश्मीर मे हुआ था वंहा मैं किसी शख्स को जानता हूं जो अपना नाम लिखते है पंडित अब्दुल समद- ये मिक्सचर वाला नाम उनके घरवालों के डर की उपज था - अब नाम तो नाम है पड़ गया सो पड़ गया और ऐसा पड़ा कि अपने पीछे इतिहास की कहानी बयां कर गया-
सवाल ये है कि हमें ये हक किसने दिया कि हम किसी से उसके अच्छे होने का हक छीन ले- किसी का भाई अगर चोर है तो हम उस बिनाह पर उसे भी चोर तो नहीं ठहरा सकते- बजाय इसके कि हम चोर के बेगुनाह भाई को चोर चोर कहकर गुनाह के दलदल में धकेल दे क्या उससे कही अच्छा ये न होगा कि हम उसे ये एहसास दिलाये कि उसका भाई चोर है तो क्या पर हमें उस पर पूरा भरोसा है- यकीन मानिये कहीं न कहीं आपका ये भरोसा पाकर वो अपने चोर भाई को भी गुनाह की दलदल से इस बात का यकीन देकर बाहर निकाल सकता है कि समाज उसे भी अच्छा होने का हक दे रहा है- वरना हमारी मानसिकता तो कहीं न कहीं उसके अच्छे होने का हक ही उससे छीन लेती है। बहुत से रास्ता भटके लोग तो सिर्फ इसी बात को सोचकर वापस नहीं आना चाहते कि लोग उन्हे पता नहीं स्वीकार करेगे भी कि नहीं- वैसे इस मामले में मोनिका बेदी एक अच्छी मिसाल साबित हुई है जिन्होने इस दुनिया से दोबारा नज़र मिलाने की हिम्मत की जो कि अपने आप में काबिले तारीफ है।
मीठे वचनो से संसार जीता जा सकता है, मुश्किल तो ये है कि कभी किसी ने इस बारे में सोचा ही नहीं।

1 comment:

deepa nigam said...

आपका कहना बिल्कुल सही है उज्जवल जिस तरह हम धर्म को परे रख कर केवल श्रद्धा मे विश्वास रखते हैं, हम दरगाह भी जाते हैं जैसे मुझे याद है कि जब मैं छोटी थीं तो मेरे पिता मुझे अपने आफिस के पास बनी निजामुद्दीन बाबा की दरगाह पर ले जाते थे, चादर चढ़ाते थे और हमे हर धर्म के साथ मिल कर चलने की सलाह देते थे.वैसे मेरे भी कुछ मुस्लिम दोस्त ऐसे थे जो मंदिर भी जाते थे और माथे पर टीका लगवाकर प्रशाद लेते थे. ये बात बिल्कुल सही है कि कुछ लोगों की करनी की सज़ा सभी को भुगतनी पड़ती है जो उनसे जुड़े होते हैं । मगर क्या आपको नही लगता कि इसी चीज़ का सहारा लेकर बहुत से लोग ऐसे काम कर जाते हैं जिसका उन्हे रत्ती भर भी एहसास नही होता क्यूंकि नफरत ही उनका सबसे बड़ा हथियार होता है और यही उन्हे अच्छे बुरे का फर्क भुला कर केवल अपने उद्देश्य को पाने का इशारा करता है। क्या ऐसे लोगो का रास्ते पर लाया जा सकता है ।