फुर्सत से...
वैसे तो फुर्सत मुश्किल से मिलती है पर इन दिनो तो फुर्सत की कोई कमी नहीं इसलिये सारी कसर निकाली जा रही है...
Monday, 4 May 2020
Sunday, 3 May 2020
बहुत कमाल थे इरफान
इरफान तो कमाल ही थे। मुझे उनसे मेरी पहली मुलाकात तो याद नही पर ये ज़रूर याद है कि साल 2003 मे आई उनकी पहली कॉमर्शियल फिल्म 'हासिल' देखने के बाद जब मैने उन्हे फोन किया तो वो बच्चो की तरह उत्साहित हो गये। फिल्म हासिल मैने मुंबई में बान्दरा के गैलेक्सी थियेटर में देखी थी जैसे ही बाहर निकला तो इरफान को फोन मिलाया तो उन्होने तपाक से पूछा कि तुमने हॉल फिल्म देखी तो मेरे कौन कौन से डायलॉग पर तालियां बजी...उन्हे अपने काम के बारे मे जानने का काफी शौक था। 'हासिल' मे जो कैरेक्टर उन्होने निभाया था मै वैसे ही एक कैरेक्टर से अपने शहर बरेली मे मिल चुका था वो भी एक छात्र नेता था जब मैने उन्हे बताया कि वो बिल्कुल वैसे ही लग रहे थे जैसे कि छात्र नेता होते है तो वो काफी खुश हुए ।
मेरा जब भी उनसे मिलना होता था तो मै उनसे जरूर पूछता कि इरफान भाई अब अगली कौन सी फिल्म कर रहे हैं और उनका जवाब यही होता कि कुछ नए की तलाश है । जो भी होगा बिल्कुल नया होगा मुझे उनका काम 'मकबूल' में भी पसंद आया 'पान सिंह तोमर' में भी पसंद आया 'लंचबॉक्स' में भी पसंद आया।
साल 2009 -2010 के दौरान जिन दिनों मै दिल्ली में था E 24 के साथ तो उन दिनों भी मेरा इरफान भाई से मिलना कई बार हुआ। अपनी हर फिल्म के प्रमोशन के लिये वो दिल्ली आते रहते थे। वह हर बार गर्मजोशी से मिलते थे खैरियत पूछते थे और कभी एहसास भी नहीं होने देते थे कि वह दुनिया के सबसे कामयाब फिल्म अभिनेताओं में से एक हैं। सामने वाले की बात को पूरी तरह सुनना, सुनकर उसे जवाब देना यही उनकी आदत थी। सात जनवरी को हर साल मै उन्हे उनके जन्मदिन की मुबारकवाद देता था और उनका जवाब भी तुरन्त आता था।
मुझे याद है मेरी उनसे आखरी मुलाकात 'करीब करीब सिंगल' के दौरान साल 2017 के नवंबर महीने में हुई थी और वह हमेशा की तरह पूरी तरह जुटे हुए थे अपनी फिल्म के प्रमोशन में, ये जो फोटो आप यहां देख रहे हैं यह उसी वक्त का फोटो है। मुझे जरा भी अंदाजा नहीं था कि इरफान भाई से ये मेरी आखिरी मुलाकात है और अगर मैं ठीक से याद करूं तो यह फोटो खुद उन्होंने कह कर ही खिंचवाया था।
असल में हमारा इंटरव्यू पूरा होने के बाद एक ग्रुप फोटो खींचा जा चुका था उसके बाद वह खुद ही बोले एक और फिर मैंने अपने सेल फोन का कैमरा ऑन कर लिया। किसे पता था कि ये उनसे मिलने का मेरा आखिरी मौका है उनसे मिलने का इस वक्त वह वाकया मुझे पूरी तरह याद आ गया है और आगे मैं कुछ भी लिख नहीं सकता क्योंकि अब हाथ काम नहीं कर रहे हैं...
मेरा जब भी उनसे मिलना होता था तो मै उनसे जरूर पूछता कि इरफान भाई अब अगली कौन सी फिल्म कर रहे हैं और उनका जवाब यही होता कि कुछ नए की तलाश है । जो भी होगा बिल्कुल नया होगा मुझे उनका काम 'मकबूल' में भी पसंद आया 'पान सिंह तोमर' में भी पसंद आया 'लंचबॉक्स' में भी पसंद आया।
साल 2009 -2010 के दौरान जिन दिनों मै दिल्ली में था E 24 के साथ तो उन दिनों भी मेरा इरफान भाई से मिलना कई बार हुआ। अपनी हर फिल्म के प्रमोशन के लिये वो दिल्ली आते रहते थे। वह हर बार गर्मजोशी से मिलते थे खैरियत पूछते थे और कभी एहसास भी नहीं होने देते थे कि वह दुनिया के सबसे कामयाब फिल्म अभिनेताओं में से एक हैं। सामने वाले की बात को पूरी तरह सुनना, सुनकर उसे जवाब देना यही उनकी आदत थी। सात जनवरी को हर साल मै उन्हे उनके जन्मदिन की मुबारकवाद देता था और उनका जवाब भी तुरन्त आता था।
मुझे याद है मेरी उनसे आखरी मुलाकात 'करीब करीब सिंगल' के दौरान साल 2017 के नवंबर महीने में हुई थी और वह हमेशा की तरह पूरी तरह जुटे हुए थे अपनी फिल्म के प्रमोशन में, ये जो फोटो आप यहां देख रहे हैं यह उसी वक्त का फोटो है। मुझे जरा भी अंदाजा नहीं था कि इरफान भाई से ये मेरी आखिरी मुलाकात है और अगर मैं ठीक से याद करूं तो यह फोटो खुद उन्होंने कह कर ही खिंचवाया था।
असल में हमारा इंटरव्यू पूरा होने के बाद एक ग्रुप फोटो खींचा जा चुका था उसके बाद वह खुद ही बोले एक और फिर मैंने अपने सेल फोन का कैमरा ऑन कर लिया। किसे पता था कि ये उनसे मिलने का मेरा आखिरी मौका है उनसे मिलने का इस वक्त वह वाकया मुझे पूरी तरह याद आ गया है और आगे मैं कुछ भी लिख नहीं सकता क्योंकि अब हाथ काम नहीं कर रहे हैं...
ऋषि कपूर की 'खुल्लम खुल्ला' से कुछ और यादें
जैसे आम तौर पर मियां बीवी के बीच झगड़े होते हैं और उनके बीच बातचीत बंद हो जाती है वैसा ही कुछ नीतू और ऋषि कपूर के बीच भी होता था और इस बात का जिक्र उन्होंने अपनी किताब खुल्लम-खुल्ला ने साफ किया है उन्होंने लिखा कि फिल्म 'जब तक है जान' के दौरान साल 2012 में उनकी और नीतू के बीच बातचीत बंद थी तब भी वह फिल्म में साथ काम कर रहे थे।
कुछ ऐसा ही दौर पहले भी आया था जब ये दोनों फिल्म 'झूठा कहीं का' के एक गाने 'जीवन के हर मोड़ पर...' को शूट कर रहे थे और इस दौरान भी दोनों के बीच बातचीत नहीं होती थी। वैसे ऐसा कम ही देखने को मिलता है कि जब कोई अपने जीवन के कड़वे पलो को भी याद रख पाए उनके बारे में खुल कर बात कर पाए और उनसे कुछ सीख देने की कोशिश करे पर चिन्टू वाकई अलग थे।
साल 2015 में अपनी शादी की 35 वीं सालगिरह ऋषि कपूर और नीतू कपूर नहीं मना सके क्योंकि उन दिनों
ऋषि कपूर परेश रावल के साथ पटेल की पंजाबी शादी नाम की फिल्म में काम कर रहे थे उनके पास वक्त नहीं था और दोनों के बीच बातचीत बंद लेकिन इस सब के बाद भी दोनों ने एक दूसरे का साथ निभाया और एक दूसरे को समझने की हर बार कोशिश की ऋषि कहते हैं कि ऊपर वाले पर उनका विश्वास हमेशा से रहा है और वह हमेशा से ही रोजाना पूजा करते रहे फिर भी उन्होंने कहा कि उनके धर्म और उनके भोजन का कोई सीधा संबंध नहीं है वह बीफ खाने वाले हिंदू के तौर पर ही जाने जाते हैं क्योंकि उनका मानना था कि भोजन का संबंध किसी तरह की श्रद्धा या धर्म से नहीं हो सकता यह सारी बातें बार-बार एक बात साफ करती हैं कि वह व्यक्ति बहुत साफ दिल था।
पत्नी नीतू धोती थी उनकी सफेद शर्ट
फिल्म प्रेम रोग की शूटिंग के दौरान जब ऋषि कपूर हॉलैंड गए थे उस वक्त नीतू कपूर और उनकी मां भी उनके साथ थे फिल्म का स्टाफ ज्यादा बड़ा नहीं था इसलिए नीतू खुद चाय बनाती और सबको पिलाती थी शूटिंग के दौरान ऋषि कपूर और पद्मिनी कोल्हापुरे को सफेद कपड़े पहने थे इसलिए नीतू कपूर खुद पद्मिनी कोल्हापुरे की सफेद साड़ी और ऋषि कपूर की सफेद शर्ट शूटिंग के बाद रोज शाम को धोती थी यह एक तरह का त्याग था नीतू कपूर का ऋषि के लिए। वह अपने जमाने की नामी स्टार थी और शादी के बाद उन्होने सब कुछ छोड़ दिया और पति की सेवा में लग गई यह बहुत बड़ा फैसला था जिसको लेने में नीतू की मां ने थी उनकी मदद की थी।
21 की उम्र में फिल्मी कैरियर शुरू होता है जबकि नीतू सिंह ने अपनी शादी के लिये 21 की उम्र में हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री को अलविदा कह दिया था वो भी खुशी खुशी।
अपनी ससुराल में दस साल तक रहे ऋषि कपूर
शादी के कुछ दिनों बाद ही ऋषि कपूर ने अपनी ससुराल में रहना शुरू कर दिया था क्योंकि उनके चेंबूर वाले घर में कुछ मरम्मत का काम चल रहा था उस जमाने में लोग दो सितारों का काफी मजाक बनाया करते थे एक ऋषि कपूर जो अपनी ससुराल में पाली हिल में रहते थे और दूसरे ही पाली हिल में रहने वाले बडे सितारे थे दिलीप कुमार जो सायरा बानो की मम्मी के घर में रहते थे । उस ज़माने में कहा जाता था कि बॉलीवुड में दो बड़े सितारे हैं जो पाली हिल जैसे पॉश इलाके में रहते हैं तो है पर घर जमाई बनकर।
ऋषि कपूर अपनी ससुराल में करीब 10 साल तक रहे। जब रणबीर कपूर का जन्म हुआ उस वक्त भी ऋषि कपूर अपनी ससुराल में ही रह रहे थे उसके कुछ सालों बाद ऋषि कपूर ने अपनी ससुराल के पास ही पाली हिल के इलाके में एक प्लॉट खरीदा और उसमें अपना बंगला बनाया नाम रखा कृष्णा राज अपनी मम्मी के नाम पर।
फिल्मों में वापसी के लिये की नीतू की मदद
2010 में आई फिल्म दो दूनी चार में ऋषि कपूर के साथ जूही चावला को लिया जाना था लेकिन जूही चावला एक मां का किरदार निभाने के लिए तैयार नहीं थी इसलिए ऋषि कपूर ने खुद नीतू को रिक्वेस्ट किया कि वो उनके साथ काम करें नीतू ने पहले तो इंकार कर दिया पर ऋषि कपूर ने उन्हें किसी तरह अपनी फिल्म के डायरेक्टर हबीब फैजल से मिलने के लिए तैयार कर लिया दोनों सिर्फ 20 मिनट के लिए मिलने गए थे और 1 घंटे के बाद बाहर निकले तब तक नीतू फिल्म की पूरी कहानी सुन चुकी थी और मन ही मन यह फैसला कर चुकी थी कि वह ये फिल्म जरूर करेंगी लेकिन यह सफर भी आसान नहीं रहा क्योंकि नीतू लगातार अपने डायलॉग्स भूलती रहीं यहां तक कि पहले दिन की शूटिंग बड़ी मुश्किल से पूरी हुई।
असल में नीतू पूरी तरह से भूल चुकी थी डायलॉग कैसे याद रखे जाते हैं क्योंकि वह कई सालों के बाद किसी फिल्म के सेट पर काम करने वापस आईं थीं और बिना चश्मा पहने कुछ भी समझ नहीं आता था ऋषि कपूर ने उनको नए सिरे से ट्रेनिंग दी और सिखाया कि काम कैसे करना है।
अपना फिल्मी करियर छोड़ने के बाद नीतू ने सिर्फ तीन ही फिल्में की 'दो दूनी चार' 2010 में और 'जब तक है जान' 2012 में और यह दोनों ही फिल्में ऋषि कपूर के साथ की इसके बाद वह फिल्म 'बेशरम' में काम करने को तैयार हुई साल 2013 में क्योंकि इसमें उन्हें अपने बेटे रणबीर और पति ऋषि दोनों के साथ काम करने का मौका मिला था
साल 2015 में अपनी शादी की 35 वीं सालगिरह ऋषि कपूर और नीतू कपूर नहीं मना सके क्योंकि उन दिनों
पत्नी नीतू धोती थी उनकी सफेद शर्ट
फिल्म प्रेम रोग की शूटिंग के दौरान जब ऋषि कपूर हॉलैंड गए थे उस वक्त नीतू कपूर और उनकी मां भी उनके साथ थे फिल्म का स्टाफ ज्यादा बड़ा नहीं था इसलिए नीतू खुद चाय बनाती और सबको पिलाती थी शूटिंग के दौरान ऋषि कपूर और पद्मिनी कोल्हापुरे को सफेद कपड़े पहने थे इसलिए नीतू कपूर खुद पद्मिनी कोल्हापुरे की सफेद साड़ी और ऋषि कपूर की सफेद शर्ट शूटिंग के बाद रोज शाम को धोती थी यह एक तरह का त्याग था नीतू कपूर का ऋषि के लिए। वह अपने जमाने की नामी स्टार थी और शादी के बाद उन्होने सब कुछ छोड़ दिया और पति की सेवा में लग गई यह बहुत बड़ा फैसला था जिसको लेने में नीतू की मां ने थी उनकी मदद की थी।
21 की उम्र में फिल्मी कैरियर शुरू होता है जबकि नीतू सिंह ने अपनी शादी के लिये 21 की उम्र में हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री को अलविदा कह दिया था वो भी खुशी खुशी।
अपनी ससुराल में दस साल तक रहे ऋषि कपूर
शादी के कुछ दिनों बाद ही ऋषि कपूर ने अपनी ससुराल में रहना शुरू कर दिया था क्योंकि उनके चेंबूर वाले घर में कुछ मरम्मत का काम चल रहा था उस जमाने में लोग दो सितारों का काफी मजाक बनाया करते थे एक ऋषि कपूर जो अपनी ससुराल में पाली हिल में रहते थे और दूसरे ही पाली हिल में रहने वाले बडे सितारे थे दिलीप कुमार जो सायरा बानो की मम्मी के घर में रहते थे । उस ज़माने में कहा जाता था कि बॉलीवुड में दो बड़े सितारे हैं जो पाली हिल जैसे पॉश इलाके में रहते हैं तो है पर घर जमाई बनकर।
ऋषि कपूर अपनी ससुराल में करीब 10 साल तक रहे। जब रणबीर कपूर का जन्म हुआ उस वक्त भी ऋषि कपूर अपनी ससुराल में ही रह रहे थे उसके कुछ सालों बाद ऋषि कपूर ने अपनी ससुराल के पास ही पाली हिल के इलाके में एक प्लॉट खरीदा और उसमें अपना बंगला बनाया नाम रखा कृष्णा राज अपनी मम्मी के नाम पर।
फिल्मों में वापसी के लिये की नीतू की मदद
2010 में आई फिल्म दो दूनी चार में ऋषि कपूर के साथ जूही चावला को लिया जाना था लेकिन जूही चावला एक मां का किरदार निभाने के लिए तैयार नहीं थी इसलिए ऋषि कपूर ने खुद नीतू को रिक्वेस्ट किया कि वो उनके साथ काम करें नीतू ने पहले तो इंकार कर दिया पर ऋषि कपूर ने उन्हें किसी तरह अपनी फिल्म के डायरेक्टर हबीब फैजल से मिलने के लिए तैयार कर लिया दोनों सिर्फ 20 मिनट के लिए मिलने गए थे और 1 घंटे के बाद बाहर निकले तब तक नीतू फिल्म की पूरी कहानी सुन चुकी थी और मन ही मन यह फैसला कर चुकी थी कि वह ये फिल्म जरूर करेंगी लेकिन यह सफर भी आसान नहीं रहा क्योंकि नीतू लगातार अपने डायलॉग्स भूलती रहीं यहां तक कि पहले दिन की शूटिंग बड़ी मुश्किल से पूरी हुई।
असल में नीतू पूरी तरह से भूल चुकी थी डायलॉग कैसे याद रखे जाते हैं क्योंकि वह कई सालों के बाद किसी फिल्म के सेट पर काम करने वापस आईं थीं और बिना चश्मा पहने कुछ भी समझ नहीं आता था ऋषि कपूर ने उनको नए सिरे से ट्रेनिंग दी और सिखाया कि काम कैसे करना है।
अपना फिल्मी करियर छोड़ने के बाद नीतू ने सिर्फ तीन ही फिल्में की 'दो दूनी चार' 2010 में और 'जब तक है जान' 2012 में और यह दोनों ही फिल्में ऋषि कपूर के साथ की इसके बाद वह फिल्म 'बेशरम' में काम करने को तैयार हुई साल 2013 में क्योंकि इसमें उन्हें अपने बेटे रणबीर और पति ऋषि दोनों के साथ काम करने का मौका मिला था
ऋषि कपूर :गाड़ी से उतरे तो हाथ में गिलास और अपनी कहानी भी लिखी तो 'खुल्लम-खुल्ला'
अगर कोई अपनी ऑटोबायोग्राफी का नाम खुल्लम-खुल्ला रखें और खासकर तब जब वो ऐसी दुनिया से ताल्लुक रखता हो जहां सारा खेल इमेज का होता है, जहां लोग अपनी बनावट की छवि का इस्तेमाल लोकप्रियता पाने के लिए करते हैं तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वो इंसान कितना बेबाक होगा-कितना बेफिक्र होगा। कुछ ऐसे ही थे ऋषि कपूर,अपनी बात साफ कहना और खुलकर कहना। हाल ही में उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा था कि कोरोना संकट केलॉकडाउन में शराब की दुकानें खोल देनी चाहिए क्योंकि इससे लोगों को अपना दिल हल्का करने का मौका मिलेगा। अब, आप ही बताइए कौन सा ऐसा सितारा है बॉलीवुड में जो हमारे समाज में शराब जैसी चीज़ पर इस तरह की बात खुलकर अपनी बात रखने की हिम्मत रखता है। यह एक छोटा सा उदाहरण है समझने के लिए कि ऋषि कपूर का व्यक्तित्व कैसा था।
फ़िल्म के बारे में सुनकर आटोग्राफ देने की प्रैक्टिस कर डाली
मैंने जब उनकी ऑटो बायोग्राफी 'खुल्लम-खुल्ला' पढ़ी तो उसमें एक मजेदार किस्से का जिक्र है। वो ये कि जब पहली बार तंगी की हालत में राज कपूर ने अपने बेटे ऋषि कपूर को बॉलीवुड में बतौर हीरो लॉन्च करने की बात सोची और उनको बताया तो पिता की बात सुनकर ऋषि कपूर साहब सीधे अपने कमरे में गए और ऑटोग्राफ देने की प्रैक्टिस करने लगे। दरअसल बचपन से उनका सपना एक फिल्मी कलाकार बनना, और जब बॉलीवुड में शुरुआत हुई तो पहली फिल्म ही सुपर डुपर हिट हो गई। वो रातोंरात स्टार बन गए, ऋषि कपूर ने अपनी ऑटोबायोग्राफी में साफ लिखा है कि उस कामयाबी ने उनका दिमाग खराब कर दिया था। वो खुद को वाकई बहुत बड़ा स्टार समझने लगे थे। आत्मकथा में इस स्वीकारोक्ति से ही साबित होता है कि वो दिल के किस कदर साफ थे, उन्होंने दिल में छिपाकर कुछ भी नहीं रखा। जैसा सोचा- जैसा समझा उसको साफ तरीके से ज़ाहिर किया। अपने आप में ही एक ऐसा गुण है जो आमतौर पर देखने को नहीं मिलता है खासकर उन लोगों में जो कि इमेज के बिजनेस में होते हैं।
खाने-पीने का शौकीन अभिनेता जिसे चिढ थी हिप्पोक्रेसी से
मुझे याद है एक फिल्मी पार्टी अटेंड करने के लिए पहुंचे ऋषि कपूर जब अपनी गाडी से उतरे तो उनके हाथ में गिलास था, अब यह कहने की जरूरत नहीं है कि उस गिलास में क्या था। तो सितारे जहां पार्टी में आने के बाद इंजॉय करना शुरू करते हैं ऋषि कपूर इतने जिंदादिल थे कि मूड बनाने पर वो अपने घर से ही शुरु हो जाते थे। जिस पार्टी में शरीक होने के लिए वो मई गिलास पहुंचे और जिसका गवाह मैं खुद रहा -वो ये बताने के लिए काफी है कि ऋषि कपूर किस सोच के इंसान थे और कितने जिंदादिल थे। दोहरा चरित्र या हिप्पोक्रेसी से उन्हें सख्त नफ़रत थी। ऋषि कपूर जिन्हें फ़िल्म इंडस्ट्री चिंटू जी के नाम से पुकारती थी, खाने-खिलाने के बेहद शौक़ीन रहे। वो यारों के यार थे और खुलकर जीने में यकीन रखते थे। शायद यही वजह थी कि जो उनके करीब गया वो मुस्कुराता हुआ ही लौटा।
राजकपूर रात को जलाते थे एक ख़ास अगरबत्ती
ऋषि कपूर ने अपनी ऑटोबायोग्राफी में एक जगह बताया है कि उनके पिता राज कपूर एक खास तरह की अगरबत्ती रात में जलाया करते थे जिससे नींद अच्छी आती है, उनका मानना था कि नींद अच्छी आएगी तो सपने अच्छे देखोगे और सपने अच्छे होंगे तो फिर पूरे भी होनेग।ऐसी तमाम छोटी-छोटी बातों का जिक्र उन्होंने अपनी किताब खुल्लम-खुल्ला में किया है जो ना सिर्फ हमें यह बताती हैं कि आप जो हैं उसे स्वीकार करें - क्योंकि आप अपने आप में अलग हैं। यूनीक हैं और आपमें जो खासियत है वह यही है कि ऊपर वाले ने आपको सबसे अलग बनाया है। दरअसल आज जरूरत हमें यही सीखने की है कि हम किसी बनावटीपन में ना उलझे बल्कि सीधे और सरल बने। मतलब जैसा सोचे जैसा समझे वैसा ही बोले भी। ऋषि कपूर ने अपनी किताब में साफ लिखा है कि वह खुद को लकी मानते थे कि उनका जन्म कपूर परिवार में हुआ, उन्होंने उस पुराने से छोटे घर का जिक्र भी किया है जो मुंबई के माटुंगा इलाके में था और जहां अक्सर लोगों का मेला लगा रहता था। आने जाने वाले लोगों में महान फिल्मकार के आसिफ जैसे लोग भी शामिल थे। ऋषि कपूर ने लिखा है कि भारतीय सिनेमा को करीब 100 साल से ज्यादा का वक्त हो चुका है जिसमें से करीब 90 साल कपूर परिवार ने फिल्म उद्योग की सेवा की है।
गुरुदेव टैगोर ने दिलवाई थी दादा को पहली फ़िल्म
बहुत कम लोग जानते हैं कि थिएटर के दिनों में ऋषि कपूर के दादाजी यानी पृथ्वीराज कपूर ने दुर्गा खोटे के साथ 'सीता' नाम का एक थिएटर किया था, जिसमें वह राम बने थे और इस थिएटर को देखने खुद रविंद्र नाथ टैगोर आए थे। टैगोर वह पृथ्वीराज कपूर की प्रतिभा से काफी प्रभावित हुए थे,इसके बाद रविंद्र नाथ टैगोर की सिफारिश पर ही उनके दोस्त बीएन सरकार ने 'सीता' फिल्म बनाई और इसमें पृथ्वीराज कपूर को कास्ट किया गया। यह फिल्म एक बहुत बड़ी ब्लॉकबस्टर बनी और कपूर खानदान की शुरुआत भारतीय फिल्म उद्योग में इसी फ़िल्म के ज़रिये हुई। कम लोग जानते हैं कि पृथ्वीराज कपूर वह पहले कलाकार थे जिन्होंने ब्लैक मनी लेने से इनकार कर दिया था, उनका कहना था कि कला के बदले मिलने वाला मेहनताना ब्लैक मनी का नहीं हो सकता। अपनी किताब में ऋषि कपूर ने अपने दादा की इन बातों को जिस प्रमुखता से उकेरा है वो साबित करता है कि ऋषि कपूर स्वयं इस बेबाकी और पवित्रता के प्रतीक थे। मुझे लगता है कि ऋषि कपूर के व्यक्तित्व में बेबाकी और साफगोई उनके दादाजी के गुणों की ही दें थी।
जब एक सीन के लिए खाने पड़े थे नौ थप्पड़
ऋषि कपूर ने 'खुल्लम खुल्ला' में बताया है कि वह जब सेट पर अपने पापा से मिलने जाते थे तो उनके मेकअप के साथ खेलने लगते, ऋषि कपूर के चाचा शशि कपूर को पहले से ही अंदाजा था कि उनका यह भतीजा एक ना एक दिन फिल्मों में बड़ा कलाकार जरूर बनेगा। ज़ाहिर है ऋषि कपूर को बचपन से ही फिल्मी माहौल मिला राज कपूर और पृथ्वीराज कपूर जैसे दिग्गजों का साथ मिला। वहीं घर में आने-जाने वाले सभी लोग फिल्म से जुड़े होते थे इसलिए उन्होंने खुद से हमेशा यही उम्मीद रखी कि वो खुद भी फिल्म इंडस्ट्री का ही हिस्सा बनेंगे। फिल्म 'मेरा नाम जोकर' से जुड़ा एक मजेदार किस्सा यह है इसमें एक सीन है जिसमें ऋषि कपूर को अपनी मां से थप्पड़ खाना है, असल में ऋषि कपूर को 9 बार उस सीन के रीटेक देने पड़े थे और हर बार उन्हें अपने गाल पर जोर का तमाचा सहना पड़ा। पापा राज कपूर ने उस सीन को तब तक रीटेक करवाया जब तक कि वह संतुष्ट नहीं हो गए। ऋषि कपूर ने लिखा है कि एक कलाकार के तौर पर यही सबसे बड़ी सीख थी कि जब तक परफेक्शन ना आ जाए सीन को फाइनल नहीं करना है।
'बॉबी' की सफलता ने दिमाग खराब कर दिया था
अपनी पहली हिट फ़िल्म 'बॉबी' को मिली कामयाबी याद करते हुए ऋषि कपूर ने लिखा है कि 20 साल की उम्र में मिली कामयाबी ने मेरा दिमाग खराब कर दिया था, और जैसे ही उसके बाद मेरी अगली फिल्म 'जहरीला इंसान' फ्लॉप हुई मेरा सारा बुखार उतर गया, अगर आप ऋषि कपूर की लिखी इस किताब को पढ़ेंगे तो उनका व्यक्तित्व शीशे की तरह साफ दिखाई देगा। और आप इस बात से बिलकुल मुतमईन हो जाएंगे कि ऋषि कपूर कि ज़िन्दगी का फलसफा उनकी ज़िन्दगी में शीशे की तरह साफ था। और वो ये कि ज़िंदगी में बनावट नहीं रखनी चाहिए। जितना जियो खुलकर जियो और ऋषि कपूर ने आखिर तक ऐसी ही किंग साइज़ लाइफ जीकर दुनिया को अलविदा कहा।
फ़िल्म के बारे में सुनकर आटोग्राफ देने की प्रैक्टिस कर डाली
मैंने जब उनकी ऑटो बायोग्राफी 'खुल्लम-खुल्ला' पढ़ी तो उसमें एक मजेदार किस्से का जिक्र है। वो ये कि जब पहली बार तंगी की हालत में राज कपूर ने अपने बेटे ऋषि कपूर को बॉलीवुड में बतौर हीरो लॉन्च करने की बात सोची और उनको बताया तो पिता की बात सुनकर ऋषि कपूर साहब सीधे अपने कमरे में गए और ऑटोग्राफ देने की प्रैक्टिस करने लगे। दरअसल बचपन से उनका सपना एक फिल्मी कलाकार बनना, और जब बॉलीवुड में शुरुआत हुई तो पहली फिल्म ही सुपर डुपर हिट हो गई। वो रातोंरात स्टार बन गए, ऋषि कपूर ने अपनी ऑटोबायोग्राफी में साफ लिखा है कि उस कामयाबी ने उनका दिमाग खराब कर दिया था। वो खुद को वाकई बहुत बड़ा स्टार समझने लगे थे। आत्मकथा में इस स्वीकारोक्ति से ही साबित होता है कि वो दिल के किस कदर साफ थे, उन्होंने दिल में छिपाकर कुछ भी नहीं रखा। जैसा सोचा- जैसा समझा उसको साफ तरीके से ज़ाहिर किया। अपने आप में ही एक ऐसा गुण है जो आमतौर पर देखने को नहीं मिलता है खासकर उन लोगों में जो कि इमेज के बिजनेस में होते हैं।
खाने-पीने का शौकीन अभिनेता जिसे चिढ थी हिप्पोक्रेसी से
मुझे याद है एक फिल्मी पार्टी अटेंड करने के लिए पहुंचे ऋषि कपूर जब अपनी गाडी से उतरे तो उनके हाथ में गिलास था, अब यह कहने की जरूरत नहीं है कि उस गिलास में क्या था। तो सितारे जहां पार्टी में आने के बाद इंजॉय करना शुरू करते हैं ऋषि कपूर इतने जिंदादिल थे कि मूड बनाने पर वो अपने घर से ही शुरु हो जाते थे। जिस पार्टी में शरीक होने के लिए वो मई गिलास पहुंचे और जिसका गवाह मैं खुद रहा -वो ये बताने के लिए काफी है कि ऋषि कपूर किस सोच के इंसान थे और कितने जिंदादिल थे। दोहरा चरित्र या हिप्पोक्रेसी से उन्हें सख्त नफ़रत थी। ऋषि कपूर जिन्हें फ़िल्म इंडस्ट्री चिंटू जी के नाम से पुकारती थी, खाने-खिलाने के बेहद शौक़ीन रहे। वो यारों के यार थे और खुलकर जीने में यकीन रखते थे। शायद यही वजह थी कि जो उनके करीब गया वो मुस्कुराता हुआ ही लौटा।
राजकपूर रात को जलाते थे एक ख़ास अगरबत्ती
ऋषि कपूर ने अपनी ऑटोबायोग्राफी में एक जगह बताया है कि उनके पिता राज कपूर एक खास तरह की अगरबत्ती रात में जलाया करते थे जिससे नींद अच्छी आती है, उनका मानना था कि नींद अच्छी आएगी तो सपने अच्छे देखोगे और सपने अच्छे होंगे तो फिर पूरे भी होनेग।ऐसी तमाम छोटी-छोटी बातों का जिक्र उन्होंने अपनी किताब खुल्लम-खुल्ला में किया है जो ना सिर्फ हमें यह बताती हैं कि आप जो हैं उसे स्वीकार करें - क्योंकि आप अपने आप में अलग हैं। यूनीक हैं और आपमें जो खासियत है वह यही है कि ऊपर वाले ने आपको सबसे अलग बनाया है। दरअसल आज जरूरत हमें यही सीखने की है कि हम किसी बनावटीपन में ना उलझे बल्कि सीधे और सरल बने। मतलब जैसा सोचे जैसा समझे वैसा ही बोले भी। ऋषि कपूर ने अपनी किताब में साफ लिखा है कि वह खुद को लकी मानते थे कि उनका जन्म कपूर परिवार में हुआ, उन्होंने उस पुराने से छोटे घर का जिक्र भी किया है जो मुंबई के माटुंगा इलाके में था और जहां अक्सर लोगों का मेला लगा रहता था। आने जाने वाले लोगों में महान फिल्मकार के आसिफ जैसे लोग भी शामिल थे। ऋषि कपूर ने लिखा है कि भारतीय सिनेमा को करीब 100 साल से ज्यादा का वक्त हो चुका है जिसमें से करीब 90 साल कपूर परिवार ने फिल्म उद्योग की सेवा की है।
गुरुदेव टैगोर ने दिलवाई थी दादा को पहली फ़िल्म
बहुत कम लोग जानते हैं कि थिएटर के दिनों में ऋषि कपूर के दादाजी यानी पृथ्वीराज कपूर ने दुर्गा खोटे के साथ 'सीता' नाम का एक थिएटर किया था, जिसमें वह राम बने थे और इस थिएटर को देखने खुद रविंद्र नाथ टैगोर आए थे। टैगोर वह पृथ्वीराज कपूर की प्रतिभा से काफी प्रभावित हुए थे,इसके बाद रविंद्र नाथ टैगोर की सिफारिश पर ही उनके दोस्त बीएन सरकार ने 'सीता' फिल्म बनाई और इसमें पृथ्वीराज कपूर को कास्ट किया गया। यह फिल्म एक बहुत बड़ी ब्लॉकबस्टर बनी और कपूर खानदान की शुरुआत भारतीय फिल्म उद्योग में इसी फ़िल्म के ज़रिये हुई। कम लोग जानते हैं कि पृथ्वीराज कपूर वह पहले कलाकार थे जिन्होंने ब्लैक मनी लेने से इनकार कर दिया था, उनका कहना था कि कला के बदले मिलने वाला मेहनताना ब्लैक मनी का नहीं हो सकता। अपनी किताब में ऋषि कपूर ने अपने दादा की इन बातों को जिस प्रमुखता से उकेरा है वो साबित करता है कि ऋषि कपूर स्वयं इस बेबाकी और पवित्रता के प्रतीक थे। मुझे लगता है कि ऋषि कपूर के व्यक्तित्व में बेबाकी और साफगोई उनके दादाजी के गुणों की ही दें थी।
जब एक सीन के लिए खाने पड़े थे नौ थप्पड़
ऋषि कपूर ने 'खुल्लम खुल्ला' में बताया है कि वह जब सेट पर अपने पापा से मिलने जाते थे तो उनके मेकअप के साथ खेलने लगते, ऋषि कपूर के चाचा शशि कपूर को पहले से ही अंदाजा था कि उनका यह भतीजा एक ना एक दिन फिल्मों में बड़ा कलाकार जरूर बनेगा। ज़ाहिर है ऋषि कपूर को बचपन से ही फिल्मी माहौल मिला राज कपूर और पृथ्वीराज कपूर जैसे दिग्गजों का साथ मिला। वहीं घर में आने-जाने वाले सभी लोग फिल्म से जुड़े होते थे इसलिए उन्होंने खुद से हमेशा यही उम्मीद रखी कि वो खुद भी फिल्म इंडस्ट्री का ही हिस्सा बनेंगे। फिल्म 'मेरा नाम जोकर' से जुड़ा एक मजेदार किस्सा यह है इसमें एक सीन है जिसमें ऋषि कपूर को अपनी मां से थप्पड़ खाना है, असल में ऋषि कपूर को 9 बार उस सीन के रीटेक देने पड़े थे और हर बार उन्हें अपने गाल पर जोर का तमाचा सहना पड़ा। पापा राज कपूर ने उस सीन को तब तक रीटेक करवाया जब तक कि वह संतुष्ट नहीं हो गए। ऋषि कपूर ने लिखा है कि एक कलाकार के तौर पर यही सबसे बड़ी सीख थी कि जब तक परफेक्शन ना आ जाए सीन को फाइनल नहीं करना है।
'बॉबी' की सफलता ने दिमाग खराब कर दिया था
अपनी पहली हिट फ़िल्म 'बॉबी' को मिली कामयाबी याद करते हुए ऋषि कपूर ने लिखा है कि 20 साल की उम्र में मिली कामयाबी ने मेरा दिमाग खराब कर दिया था, और जैसे ही उसके बाद मेरी अगली फिल्म 'जहरीला इंसान' फ्लॉप हुई मेरा सारा बुखार उतर गया, अगर आप ऋषि कपूर की लिखी इस किताब को पढ़ेंगे तो उनका व्यक्तित्व शीशे की तरह साफ दिखाई देगा। और आप इस बात से बिलकुल मुतमईन हो जाएंगे कि ऋषि कपूर कि ज़िन्दगी का फलसफा उनकी ज़िन्दगी में शीशे की तरह साफ था। और वो ये कि ज़िंदगी में बनावट नहीं रखनी चाहिए। जितना जियो खुलकर जियो और ऋषि कपूर ने आखिर तक ऐसी ही किंग साइज़ लाइफ जीकर दुनिया को अलविदा कहा।
Wednesday, 14 September 2016
सन्तुलन ही सुंदरता है
पहले कहीं पढा था कि मनुष्य
सौन्दर्योपासक (सुंदरता की पूजा करने वाला) प्राणी है मतलब सुन्दरता की पूजा करता
है जो भी अच्छा लगे सुन्दर लगे उसे पसंद करता है। फिर जानने की कोशिश की कि
सुन्दरता है क्या बहुत ढूंढा कवियो की कविताओ मे मिसाले तो कई मिली पर सटीक उत्तर
नही मिला एक ऐसी बात जो सटीक जवाब दे सके वो किसी के पास नही मिली। फिर अपने अनुभव
से एक नयी परिभाषा बनाई जो कई मायनो मे सही लगी - सन्तुलन ही सुंदरता है मतलब अगर
कुछ सन्तुलित है तो वो सुन्दर है किसी भी चीज का सन्तुलित होना ही सुंदरता का सबसे
बड़ा पैमाना है मान लो किसी की एक आँख छोटी दूसरी बडी है तो वो सुन्दर नही है
क्योकि वंहा सन्तुलन नही है एक हाथ छोटा दूसरा बड़ा हो तो भी सुन्दरता नही होती। दिन
मे काम हो रात मे आराम तो सन्तुलन हो जाता है इसी से तो जीवन मे सुन्दरता आ जाती
है सोचो दिन रात काम हो तो जीवन की सुन्दरता तो चली जायेगी ना । मै आपको बता दूं
कि यंहा किसी शरीर की सुंदरता की बात नही हो रही बल्कि बात हो रही है उस सुंदरता
की जिसे हम जीना चाहते है जिसे हर पल महसूस करना चाहते है वही सुंदरता जो हम सामने
वाले के दिल मे देखना चाहते है फिर चाहे वो काम मे हो घर मे हो बाहर हो या हमारे
आस पास। कहने का मतलब है कि सन्तुलन जरूरी है हर काम मे जीवन के हर पहलू में। तभी
तो वो सुंदरता आयेगी जिसका हम सब हर पल इंतजार करते है।
कही ये भी पढा था कि हमारे
हाथो की उंगलिया बराबर इसीलिये नही होती जिससे कि वो हाथ को बेहतर संतुलन दे
पाये...बराबर होती तो हमारे हाथ की मुठ्ठी की पकड़ उतनी सही नही बनती जितनी कि
उंगलियो के अलग अलग आकार का होने से बनती है। कई बार दिखने मे अलग अलग दिखना भी
असली सुंदरता के लिये जरूरी होता है- तभी तो दुनिया मे अलग अलग तरह के पहाड़,
नदिया, झरने, पक्षी और देश है। विविधता भी तो एक तरह का सन्तुलन है एक तरह की
सुंदरता है। यही विविधता तो हमे आकर्षित करती है या कहे बांध कर रखती है।
ये भी एक तरह की सुंदरता है
कि हम सब देखने मे एक दूसरे से अलग है तभी तो तरह तरह के चेहरे कद काठी इस दुनिया
को देखने लायक बनाते है- कही पहाड तो कही खाई कही समुद्र तो कंही झरने इस दुनिया
को बनाने वाले ने प्रकृति को सन्तुलित करने की या फिर ये कहे कि सही मायनो मे
सुंदर बनाने की पूरी कोशिश की है- सुंदरता तो सन्तुलन मे ही है ना तभी तो गर्मी के
मौसम मे पहाडो पर जाना और सर्दी के मौसम मे गर्म धूप सेंकना अच्छा लगता है क्योकि
यही तो हमारा सन्तुलन बनाता है।
हम सबकी उंगलियो के निशान
आपस मे नही मिलते ये भी किसी सुंदरता से क्या कम है कि दिन उजले और रात काली होती
है सोचो सिर्फ रात ही रहे तो या फिर सिर्फ दिन ही रहे तो...ऋतुओ का बदलना सबको
सन्तुलित करता है...लोग काम से अक्सर ब्रेक लेकर कहीं चले जाते है घूमने अपने
रोजाना के काम से अलग कही दूर ऐसी जगह जंहा वो रोज ना जाते हो...ये भी एक सन्तुलन
पैदा करता है..। अगली बार जब भी आपको कही कोई सुंदरता दिखाई दे तो यही समझियेगा कि
ये सन्तुलित है तभी तो सुंदर लग रही है।
Wednesday, 7 November 2012
पेशेवर चोर को भी ज़मानत - ये कैसा कानून?
देश को सबसे ज्यादा टैक्स देने वाले और सबसे घनी आबादी वाले शहर मुंबई में 15 दिन पहले एक चोर एक फिल्म स्टार के घर चोरी करने के बाद कुछ ही घंटो में चोरी के माल समेत पकड़ा जाता है- पुलिस उसे ज़मानत पर छोड़ देती है- यही चोर इस चोरी के 15 दिनो के बाद शहर के सबसे पॉश इलाके (पेरी क्रास रोड बान्द्रा) मे एक स्पेनिश महिला के घर मे घुसकर उसके साथ दो बार बलात्कार करता है और घर का सामान लूट कर फरार हो जाता है।
यह घटना देश मे महिलाओ के लिये सबसे सुरक्षित माने जाने वाले शहर मुंबई में होती है जिस शहर की पुलिस की तुलना आप दुनिया की सबसे तेज पुलिस Scotland yard से करते है। जिस इलाके में ये घटना हुई वंहा दुनिया के सबसे अच्छे क्रिकेटर सचिन तेन्दुलकर का भी घर है। यंहा चोरी और बलात्कार की वारदात को अंजाम देने वाला एक ही शख्स है और बाकी सारी बाते मैने इसलिये गिनाई है जिससे सारे पहलुओ की सच्चाई सामने आ सके-
अब इस घटना से कुछ सवाल खड़े होते है
1- जो चोर पकड़ा गया वो पेशेवर चोर है पहले भी आर्थर रोड जेल मे 5 महीने की कैद की सजा काट चुका है- उसे ज़मानत कैसे और क्यो मिली क्या हमारे देश का कानून पेशेवर चोर को भी ज़मानत देता है
2- एक चोर को ज़मानत मिली और दूसरे ही हफ्ते उसने चोरी के साथ बलात्कार भी किया- इतना ही नही उसने विदेशी महिला के साथ ये हरकत की जिससे विश्व पटल पर दुनिया के सामने हमारे कानून की खामी उजागर हो गई
3- ये हादसा उस जगह हुआ जंहा VIP रहते है- ऐसा माना जाता है कि उस जगह की सुरक्षा व्यवस्था कड़ी होनी चाहिये- साथ ही ये शहर देश को सबसे ज्यादा टैक्स देता है- ऐसे मे ये गलती माफी के काबिल नही
4- पुलिस से ज्यादा कानून की कमजोरी बाहर निकल कर सामने आई है- ज़रा सोचिये उस देश मे कसाब जैसे आतंकी क्यो नहीं घुसेंगे- शरद पवार और गडकरी क्यो नही पनपेगे जिस देश का कानून पेशेवर चोर को भी ज़मानत दे देता हो।
हैरानी की बात है कि कोई देश किसी पेशेवर गुनाहगार को कैसे ज़मानत दे सकता है जिसकी आमदनी का जरिया गुनाह करना हो क्यो वो किसी ज़मानत की परवाह कर सकता है क्या- ये बात मेरी समझ से परे है।
इस खबर का लिंक http://timesofindia.indiatimes.com/city/mumbai/Burglar-who-raped-Spaniard-was-out-on-bail-is-arrested/articleshow/17124274.cms
इस खबर का लिंक http://timesofindia.indiatimes.com/city/mumbai/Burglar-who-raped-Spaniard-was-out-on-bail-is-arrested/articleshow/17124274.cms
Thursday, 25 October 2012
और फिर एक डोर खिंच गई...
चार दिन पहले यश चोपड़ा जी के निधन के बाद मैने मौत का reminder नाम से पोस्ट लिखी थी और अब जसपाल भट्टी की हादसे मे मौत के साथ आज सुबह की शुरूआत हुई। ईश्वर को भी लगता है किसी नेता से इतना प्यार नहीं जितना कलाकारो से है। जसपाल भट्टी के निधन के साथ फिर से उस supreme power ने हमे एहसास दिलाने की कोशिश की है कि जिन्दगी कभी भी हमसे छिन सकती है- इसलिये जी भर कर जियो और छोटी छोटी बातो पर अपना दिल छोटा ना करो।
दूसरे को नीचा दिखा कर जो खुशी मिलती है वो कितनी झूठी होती है- दूसरो को दुख देकर जो सुख मिलता है वो कितना खोखला होता है ये वो सारी बाते है जिनके बारे मे अलग अलग धर्मो के गुरू हमे सीख देते आये है लेकिन सब बेकार जाता है। हमे असली समझ तभी आती है जब कोई हमारा करीबी य़ा जिसे हम जानते पसंद करते हों उसकी जान जाये। हम झूठी मान प्रतिष्ठा के पीछे भागते रहते है और एक दिन ऊपर वाला आपकी डोर खींच देता है फिर क्या.... सब धरा रह जाता है यहीं.... फिर याद आता है गीता का ज्ञान- पहले तो भागते रहते है सब कुछ भूल कर लेकिन अगर पहले ही ख्याल रखे तो शायद किसी को अफसोस ही ना हो।
हर पल आखिरी हो सकता है हर मुलाकात आखिरी हो सकती है इसलिये हर काम यादगार रह जाये ऐसा करो क्योकि ना जाने फिर कल हो ना हो..
दूसरे को नीचा दिखा कर जो खुशी मिलती है वो कितनी झूठी होती है- दूसरो को दुख देकर जो सुख मिलता है वो कितना खोखला होता है ये वो सारी बाते है जिनके बारे मे अलग अलग धर्मो के गुरू हमे सीख देते आये है लेकिन सब बेकार जाता है। हमे असली समझ तभी आती है जब कोई हमारा करीबी य़ा जिसे हम जानते पसंद करते हों उसकी जान जाये। हम झूठी मान प्रतिष्ठा के पीछे भागते रहते है और एक दिन ऊपर वाला आपकी डोर खींच देता है फिर क्या.... सब धरा रह जाता है यहीं.... फिर याद आता है गीता का ज्ञान- पहले तो भागते रहते है सब कुछ भूल कर लेकिन अगर पहले ही ख्याल रखे तो शायद किसी को अफसोस ही ना हो।
हर पल आखिरी हो सकता है हर मुलाकात आखिरी हो सकती है इसलिये हर काम यादगार रह जाये ऐसा करो क्योकि ना जाने फिर कल हो ना हो..
Monday, 22 October 2012
मौत का reminder
सबसे ज्यादा अफसोस ये सोचकर होता है कि हम रोजाना ये सोचकर जीते है मानो कभी मरेगे ही नही- छोटे छोटे झगड़ो मे उलझे रहते है- दूसरो को नीचा दिखा कर खुद को अव्वल बताना- किसी के खुश होने पर उससे ईर्ष्या करना- और कभी न पटने वाले अपने इच्छाओ के कुएं को भरने मे लगे रहते है बिना एक भी पल जिये। तभी किसी करीबी की मौत का समाचार कुछ पलो के लिये हमे मौत का
reminder देता है हम थोडी देर के लिये सोचते है दुखी होते है और अगले दिन से फिर वही घास काटने मे लग जाते है।
अगर रोजाना हम सुबह उठकर ये सोच कर जिये कि ये दिन मेरा आखिरी दिन भी हो सकता है तो ना सिर्फ हम उस दिन को पूरी तरह से जी पायेगे बल्कि मौत का डर जो बेवजह हमे सताता है नही सतायेगा। कुछ लोग मेरे विचारो को नकारात्मक सोच भी कह सकते है पर मेरे पास इस बात का पूरा तर्क है कि जो निश्चित है उससे डर कर भागना या ये मानना कि ऐसा नही होगा सबसे बड़ी मूर्खता है। जीवन मे इस बात का हर पल ख्याल रखना कि ये हमारा आखिरी पल हो सकता है- ये सोच न सिर्फ हमे बुरे कर्मो से दूर रखेगी बल्कि सद कर्मो के लिये प्रेरित भी करेगी।
अगर यही सोच मानकर हमारे राजनेता चलेगे तो घोटाले किस के लिये करेगे - क्योकि एक दिन तो सबको जाना है अगर आप अपने बच्चो के लिये खजाना भर रहे है तो ये भी सोचिये कि वो भी एक दिन मरने वाले है। जब इस दुनिया मे कुछ भी स्थाई नही है तो इतनी हाय माया क्यो..
मै क्यो कुछ दिन की खुशी के लिये अपने मन पर वो बोझ लूं जो मुझे चैन से मरने भी ना दे। जब मेरी मौत परम सत्य है जब अपने सभी करीबी लोगो और पसंदीदा चीजो से एक दिन बिछुड़ना ही है तो मै वो मोह क्यो पालूं और सबसे बड़ी बात मैं खुद को धोखे मे क्यो रखू..? कम से कम मै खुद से तो सच बोल ही सकता हूं..मुझे विश्वास है कि दुनिया का हर बुरा काम करते वक्त उस काम को करने वाले व्यक्ति को अपनी मौत और जिंदंगी के अस्थाई होने का ज्ञान नही होता- (यंहा मै फिदायीन आतंकियो की बात नही कर रहा हू उन्हे तो उनके धर्म गुरू ही गड्ढे मे धकेल देते है कि जा बेटा धर्म के नाम पर जान दे दे- अरे धर्म के नाम पर क्यो दू जान जब धर्म के नाम अपनी जिंदगी बिता सकता हू तो क्यो जाऊं मरने- इसके लिये अलग से पोस्ट लिखूंगा)
अपने असल मुद्दे पर लौटता हूं - मै क्यो एक temporary life के लिये परम सत्य को भूला रहू मै तो रोज उसे याद रखता हू और चाहता हू कि सुबह उठकर सबको इस दुनिया मे यही ख्याल आये कि वो आज मर सकते है- यकीन मानिये जिस दिन ऐसा हुआ अपराध की फाइले नही बनेगी कोई मुकदमे या हमले नही होगे। मुझे ये पता है कि मै कुछ दिनो के लिये हू तो मै मानकर चलुगा कि मै ऐसा कोई काम ना करू जिससे मुझे या किसी और को कोई तकलीफ हो- मेरी मानिये अपने मोबाइल पर मौत के reminder लगा लीजिये- आपको कभी किसी और की या फिर अपनी मौत से डर भी नही लगेगा और आप गलत काम करने से भी बचे रहेगे- बाकी आपकी मर्जी।
Sunday, 21 October 2012
आदत बदलनी है तो माहौल बदलें
बचपन मे मेरे पड़ोसी रहे गुप्ता अंकल कभी शराब नही पीते थे लेकिन होली के दिन ना जाने सुबह से उन्हे क्या हो जाता था वो सुबह से ही भंग चढाने के लिये तैयार हो जाते थे। अगले दिन सुबह से फिर वही कभी शराब न पीने की बात करना। होली के दिन यकीन करना मुश्किल होता था कि ये वही गुप्ता जी है जो साल के बाकी के दिन नशा न करने की हिदायते देते रहते है। एक दिन जब मै थोड़ा बड़ा हुआ तो होली के अगले दिन मैने बड़ी हिम्मत करके उनसे ये सवाल किया कि गुप्ता जी ये होली के दिन आप कैसे भंग पीने लग जाते है जबकि साल के बाकी के दिनो मे आप नशे से कोसो दूर रहते है तो मेरी इस बात का जवाब जो उन्होने दिया वो काफी चौकाने वाला था - वो बोले बेटा उस दिन तो माहौल ही ऐसा होता है तो कुछ समझे आप ये माहौल है जो किसी को भी बदलने के लिये काफी होता है।
वो माहौल ही है जो सड़क पर थूकने वाले लोगो को किसी साफ सुथरे मॉल में थूकने से रोकता है। तो क्या देश की सड़को पर फैली गंदगी के लिये माहौल को जिम्मेदार माना जा सकता है तो जवाब मिलेगा एक हद तक- मेरे कई ऐसे मित्र है जो जब हिन्दुस्तान मे होते है तो बडे बेढंगे ढंग से बात करते है- सड़क पर पास पड़ोस मे गंदगी भी फैला देते है लेकिन जैसे ही ये किसी पश्चिमी देश की यात्रा पर जाते है तो इनका बात करने का ढंग- साफ सफाई रखने का तरीका- देखकर यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि ये वही है जो अपने घर पर अपने देश मे गंदगी फैलाते रहते है- इनसे भी अगर पूछ लो तो जवाब मिलेगा- "यार वंहा का माहौल ही ऐसा है कि हमे थोड़ा संभल कर साफ सफाई से रहना पडता है" समझे आप फिर माहौल की बात- तो अगर मेरे दोस्त माहौल इतना अहम रोल अदा करता है कि आप अपनी आदतो को माहौल के हिसाब से बदल पाते है। गौर कीजियेगा यंहा मैं माहौल के उस गुण की बात कर रहा हूँ जो आपकी आदत को भी बदलवाने की ताकत रखता है (आदतो के बारे मे कहा जाता है कि जो बदली नही जा सकती वही आदत होती है) तो कितनी ताकत होती है इस माहौल मे।
अगर माहौल के बारे मे ऊपर लिखे गये तर्क ठीक है तो फिर ये भी जान लेना जरूरी है कि माहौल बना कर किसी भी बुराई से निजात पाई जा सकती है क्योकि बुराईया हमारी आदतो मे ही तो होती है फिर चाहे देर तक सोने की आदत हो, नशा करने की आदत हो, कामचोरी की आदत हो, झूठ बोलने की आदत है, भ्रष्ट होने की आदत हो ये सब आदते ही तो हमारे देश का बेड़ा गर्क कर रही है- मतलब अगर माहौल बदल दिया जाये तो ये सब बुराईया दूर भगाई जा सकती है।
देश मे अन्ना के आंदोलन ने, अरविंद केजरी वाल के खुलासो ने या फिर बाबा रामदेव के योग ने क्या किया माहौल ही तो बनाया और देखिये माहौल ने कैसे अपना असर भी दिखाया। भले छोटे स्तर से हुआ हो लेकिन लोग लोकपाल बिल के बारे मे जानने लगे ,बात करने लगे, अनुलोम विलोम, कपाल भांति और प्राणायाम घर घर मे बोले जाने वाले शब्द बन गये लोग इनके बारे मे जानने लगे। विज्ञापनो की दुनिया (ad world) भी अपना प्रोडक्ट बेचने के लिये क्या करती है माहौल ही तो बनाती है जैसा प्रोडक्ट वैसा माहौल- "जो अपनी बीवी से करते है प्यार वो प्रैस्टीज कुकर से कैसे करे इंकार" मानो रेडियो टी वी पर बार बार इस बात का प्रचार किया जा रहा हो- माहौल बनाया जा रहा हो कि दुनिया का हर वो पति बेकार है जिसके घर प्रैस्टिज का कुकर नही है- ये सब एक माहौल बनाने की प्रक्रिया का ही हिस्सा है। नवरात्र मे लोग मांस खाना छोड देते है क्योकि ऐसा माहौल बना दिया जाता है।
तो अगली बार अगर आप किसी भी बुराई से निजात पाना चाहे, कोई आदत बदलना चाहे तो बस आपको इतना करना है कि माहौल बनाना है।
वो माहौल ही है जो सड़क पर थूकने वाले लोगो को किसी साफ सुथरे मॉल में थूकने से रोकता है। तो क्या देश की सड़को पर फैली गंदगी के लिये माहौल को जिम्मेदार माना जा सकता है तो जवाब मिलेगा एक हद तक- मेरे कई ऐसे मित्र है जो जब हिन्दुस्तान मे होते है तो बडे बेढंगे ढंग से बात करते है- सड़क पर पास पड़ोस मे गंदगी भी फैला देते है लेकिन जैसे ही ये किसी पश्चिमी देश की यात्रा पर जाते है तो इनका बात करने का ढंग- साफ सफाई रखने का तरीका- देखकर यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि ये वही है जो अपने घर पर अपने देश मे गंदगी फैलाते रहते है- इनसे भी अगर पूछ लो तो जवाब मिलेगा- "यार वंहा का माहौल ही ऐसा है कि हमे थोड़ा संभल कर साफ सफाई से रहना पडता है" समझे आप फिर माहौल की बात- तो अगर मेरे दोस्त माहौल इतना अहम रोल अदा करता है कि आप अपनी आदतो को माहौल के हिसाब से बदल पाते है। गौर कीजियेगा यंहा मैं माहौल के उस गुण की बात कर रहा हूँ जो आपकी आदत को भी बदलवाने की ताकत रखता है (आदतो के बारे मे कहा जाता है कि जो बदली नही जा सकती वही आदत होती है) तो कितनी ताकत होती है इस माहौल मे।
अगर माहौल के बारे मे ऊपर लिखे गये तर्क ठीक है तो फिर ये भी जान लेना जरूरी है कि माहौल बना कर किसी भी बुराई से निजात पाई जा सकती है क्योकि बुराईया हमारी आदतो मे ही तो होती है फिर चाहे देर तक सोने की आदत हो, नशा करने की आदत हो, कामचोरी की आदत हो, झूठ बोलने की आदत है, भ्रष्ट होने की आदत हो ये सब आदते ही तो हमारे देश का बेड़ा गर्क कर रही है- मतलब अगर माहौल बदल दिया जाये तो ये सब बुराईया दूर भगाई जा सकती है।
देश मे अन्ना के आंदोलन ने, अरविंद केजरी वाल के खुलासो ने या फिर बाबा रामदेव के योग ने क्या किया माहौल ही तो बनाया और देखिये माहौल ने कैसे अपना असर भी दिखाया। भले छोटे स्तर से हुआ हो लेकिन लोग लोकपाल बिल के बारे मे जानने लगे ,बात करने लगे, अनुलोम विलोम, कपाल भांति और प्राणायाम घर घर मे बोले जाने वाले शब्द बन गये लोग इनके बारे मे जानने लगे। विज्ञापनो की दुनिया (ad world) भी अपना प्रोडक्ट बेचने के लिये क्या करती है माहौल ही तो बनाती है जैसा प्रोडक्ट वैसा माहौल- "जो अपनी बीवी से करते है प्यार वो प्रैस्टीज कुकर से कैसे करे इंकार" मानो रेडियो टी वी पर बार बार इस बात का प्रचार किया जा रहा हो- माहौल बनाया जा रहा हो कि दुनिया का हर वो पति बेकार है जिसके घर प्रैस्टिज का कुकर नही है- ये सब एक माहौल बनाने की प्रक्रिया का ही हिस्सा है। नवरात्र मे लोग मांस खाना छोड देते है क्योकि ऐसा माहौल बना दिया जाता है।
तो अगली बार अगर आप किसी भी बुराई से निजात पाना चाहे, कोई आदत बदलना चाहे तो बस आपको इतना करना है कि माहौल बनाना है।
नयी पीढी नया खतरा- जरूरी है जानना
सरकार ने अपने नये कंपनी बिल मे कहा है कि देश मे बडा मुनाफा कमाने वाली कंपनी अपनी कमाई के दो फीसदी हिस्से को corporate social responsibility के तौर पर खर्च करे । इस नये नियम के तहत एक कंपनी ने चेन्नई मे एक workshop आयोजित करके बच्चो को समझाया कि rain water harvesting कैसे होती है और इसके क्या फायदे होते है। मुझे ये सरकारी कदम वाकई सराहनीय लगा। आज बच्चो को पढाई के साथ साथ हर उन बातो का ज्ञान देने की जरूरत है जो बदलते वक्त के साथ उनके सामने चुनौतियो के रूप मे सामने आने वाली है। अगर हमारी पिछली दो पीढियो को rain water harvesting या global warming noise pollution और waste management जैसी प्रणालियो के बारे मे जानकारी दी जाती तो आज हालात और होते लेकिन बदलते वक्त की वजह से नये पैदा होते इन खतरो से कैसे निबटना है ये हमारी नयी पीढी को तो कम से कम जरूर पता होना चाहिये। आज की पीढी इन सारे खतरो को ज्यादा करीब से देखने वाली है क्योकि ये नई पीढी कई सारे नये खतरो के साथ अपनी जिन्दगी शुरू कर रही है यंहा पर मै उन बच्चो की बात कर रहा हू जो अभी स्कूलो मे पढ रहे है।
पहला खतरा है सैलफोन को इस्तेमाल से होने वाले नये मानसिक रोगो को खतरा जिसके बारे मे पिछली पीढी को जानने की जरूरत नही थी क्योकि तब सैल फोन नही होते थे। दूसरा मुद्दा है global warming का जिसके बारे मे पिछली पीढी मे कोई जागरूकता नही थी और आजादी के बाद विकास के नाम पर कई जंगल स्वाहा किये गये और नतीजा ये कि आज देश के किसी भी हिस्से का मौसम कोई भी करवट ले लेता है साथ ही शहरी तापमान भी तेजी से बढ रहा है। तीसरा नया खतरा है waste management का आज देश की जनसंख्या तेजी से बढने के बाद ( जिसमे illegal migrants Bangladeshi, Pakistani and Nepali शामिल है) कचरे की मात्रा २० गुने से भी ज्यादा बढी है यह भी एक नया खतरा है ऐसे मे waste management के बारे मे बच्चो को बताना जरूरी है। चौथा नया खतरा ध्वनि प्रदूषण का है हमे अपने बच्चो को बताना होगा कि शान्ति की हमारे जीवन मे क्या अहमियत है। शान्ति न केवल हमारे मानसिक स्वास्थय के लिये आवश्यक है बल्कि हमारे शरीर को ऊर्जावान बनाये रखने और किसी भी काम मे एकाग्रचित होने के लिये सबसे ज्यादा जरूरी है।
पांचवा खतरा जो नया नही है लेकिन हाल के कुछ सालो मे तेजी से बढा है वो है वायु प्रदूषण का जिसकी वजह है सड़को पर तेजी से बढने वाली कारे, स्कूटर और मोटर साइकल। शायद अब वक्त आ गया है जब कि हमे बच्चो को ये कहना होगा कि बचपन मे स्कूल जाने के लिये दी गई साइकिले अब उन्हे बड़े होने के बाद भी इस्तेमाल करनी चाहिये और पैट्रोल डीजल से चलने वाली गाडियो से दूर ही रहना चाहिये तभी वो अपनी संास लेने लायक वातावरण रख पायेगे।
खतरे और भी है लेकिन एक खतरा जो सबसे पुराना है जिस पर हमारी पिछली ४ पीढिया बिल्कुल ध्यान नही दे पाई और जो सारे खतरो की जड़ है वो है जनसंख्या का तेजी से बढना। अगर हम अपनी जनसंख्या पर काबू कर पाते जो सिर्फ और सिर्फ हमारे ही हाथ मे था तो ऊपर लिखे कई खतरो का स्तर या तो काफी कम होता या फिर ना के बराबर होता। अफसोस की बात है कि तीस से साठ के दशक के बीच हुई हिन्दुस्तान की ज्यादातर शादिया मानो सिर्फ बच्चे पैदा करने के लिये ही की गई । उन दिनो हर घर मे तीन से लेकर १२ बच्चे तक होते थे नतीजा ये कि आज देश की ट्रेन मे सीट , बस मे खड़े होने की जगह , फुटपाथ पर पांव रखने की जगह, स्कूल मे दाखिला, शहर मे रहने को घर और अस्पतालो मे बिस्तर नही मिलते। ऐसे मे वृद्ध लोगो से ये सुनना कि हमारे जमाने मे ऐसा नही था जले पर नमक छिड़कने का काम करता है क्योकि अगर उस पीढी ने जनसंख्या पर काबू पाया होता और क्रिकेट टीम की तरह बच्चे पैदा न किये होते तो आज ये स्थिति नही होती।
खैर जो हुआ सो हुआ लेकिन अब जो हमारे हाथ मे है वो ये कि हम अपनी अगली पीढी को नये युग के इन नये खतरो से निबटने के लिये जागरूक जरूर करे- ऐसे मे कुछ corporate companies का workshop लगाकर social responsibility पूरा करना एक अच्छा कदम है और इस तरह की शुरूआत हम अपने पास पड़ोस और बिल्डिग के बच्चो को किसी छुट्टी के दिन साथ बैठाकर भी कर सकते है। हम उन्हे खेल खेल मे इन सारी बातो के बारे मे बता सकते है। ये नयी सीख उनके आने वाले कल के लिये काफी मददगार साबित होगी और अगर हम ये ना कर पाये तो हमारी हार होगी। नये खतरो से निबटने के लिये नयी पीढी को तैयार करना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है और जिम्मेदारी से भागना कायरो का काम है।
पहला खतरा है सैलफोन को इस्तेमाल से होने वाले नये मानसिक रोगो को खतरा जिसके बारे मे पिछली पीढी को जानने की जरूरत नही थी क्योकि तब सैल फोन नही होते थे। दूसरा मुद्दा है global warming का जिसके बारे मे पिछली पीढी मे कोई जागरूकता नही थी और आजादी के बाद विकास के नाम पर कई जंगल स्वाहा किये गये और नतीजा ये कि आज देश के किसी भी हिस्से का मौसम कोई भी करवट ले लेता है साथ ही शहरी तापमान भी तेजी से बढ रहा है। तीसरा नया खतरा है waste management का आज देश की जनसंख्या तेजी से बढने के बाद ( जिसमे illegal migrants Bangladeshi, Pakistani and Nepali शामिल है) कचरे की मात्रा २० गुने से भी ज्यादा बढी है यह भी एक नया खतरा है ऐसे मे waste management के बारे मे बच्चो को बताना जरूरी है। चौथा नया खतरा ध्वनि प्रदूषण का है हमे अपने बच्चो को बताना होगा कि शान्ति की हमारे जीवन मे क्या अहमियत है। शान्ति न केवल हमारे मानसिक स्वास्थय के लिये आवश्यक है बल्कि हमारे शरीर को ऊर्जावान बनाये रखने और किसी भी काम मे एकाग्रचित होने के लिये सबसे ज्यादा जरूरी है।
पांचवा खतरा जो नया नही है लेकिन हाल के कुछ सालो मे तेजी से बढा है वो है वायु प्रदूषण का जिसकी वजह है सड़को पर तेजी से बढने वाली कारे, स्कूटर और मोटर साइकल। शायद अब वक्त आ गया है जब कि हमे बच्चो को ये कहना होगा कि बचपन मे स्कूल जाने के लिये दी गई साइकिले अब उन्हे बड़े होने के बाद भी इस्तेमाल करनी चाहिये और पैट्रोल डीजल से चलने वाली गाडियो से दूर ही रहना चाहिये तभी वो अपनी संास लेने लायक वातावरण रख पायेगे।
खतरे और भी है लेकिन एक खतरा जो सबसे पुराना है जिस पर हमारी पिछली ४ पीढिया बिल्कुल ध्यान नही दे पाई और जो सारे खतरो की जड़ है वो है जनसंख्या का तेजी से बढना। अगर हम अपनी जनसंख्या पर काबू कर पाते जो सिर्फ और सिर्फ हमारे ही हाथ मे था तो ऊपर लिखे कई खतरो का स्तर या तो काफी कम होता या फिर ना के बराबर होता। अफसोस की बात है कि तीस से साठ के दशक के बीच हुई हिन्दुस्तान की ज्यादातर शादिया मानो सिर्फ बच्चे पैदा करने के लिये ही की गई । उन दिनो हर घर मे तीन से लेकर १२ बच्चे तक होते थे नतीजा ये कि आज देश की ट्रेन मे सीट , बस मे खड़े होने की जगह , फुटपाथ पर पांव रखने की जगह, स्कूल मे दाखिला, शहर मे रहने को घर और अस्पतालो मे बिस्तर नही मिलते। ऐसे मे वृद्ध लोगो से ये सुनना कि हमारे जमाने मे ऐसा नही था जले पर नमक छिड़कने का काम करता है क्योकि अगर उस पीढी ने जनसंख्या पर काबू पाया होता और क्रिकेट टीम की तरह बच्चे पैदा न किये होते तो आज ये स्थिति नही होती।
खैर जो हुआ सो हुआ लेकिन अब जो हमारे हाथ मे है वो ये कि हम अपनी अगली पीढी को नये युग के इन नये खतरो से निबटने के लिये जागरूक जरूर करे- ऐसे मे कुछ corporate companies का workshop लगाकर social responsibility पूरा करना एक अच्छा कदम है और इस तरह की शुरूआत हम अपने पास पड़ोस और बिल्डिग के बच्चो को किसी छुट्टी के दिन साथ बैठाकर भी कर सकते है। हम उन्हे खेल खेल मे इन सारी बातो के बारे मे बता सकते है। ये नयी सीख उनके आने वाले कल के लिये काफी मददगार साबित होगी और अगर हम ये ना कर पाये तो हमारी हार होगी। नये खतरो से निबटने के लिये नयी पीढी को तैयार करना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है और जिम्मेदारी से भागना कायरो का काम है।
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